उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
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ऐसा कार्य मिलने पर मैं सन्तुष्ट था। मुझको ऐसा लग रहा था, मानो किसी पुरुष के लिए भली स्त्रियों को मैं फुसलाने जा रहा हूँ। यह ठीक है कि इसमें कामवासना की प्रधानता नहीं थी, इस पर भी उद्देश्य तो स्वार्थमय था और उस स्वार्थ-सिद्धि के लिए महर्षि को अपनी पत्नी से अनिष्ठा का व्यवहार करने के लिए तैयार करना था।
इस पर भी यह विचार कर कि मैं सुरराज की सेवा में हूँ और उनकी इच्छा है कि मैं शीघ्रातिशीघ्र इस परिवार के पतन का प्रबन्ध करूँ, मैं चुप हो गया। अगले दिन मैं राजकुमार देवव्रत के आवास में पहुँचा। वहाँ वे एक अभियोग को सुन रहे थे। एक स्त्री अपने पति के विरुद्ध आरोप लगा रही थी। मैं नमस्कार कर एक ओर बैठ गया। वह स्त्री कह रही थी, ‘‘श्रीमान! मेरे पति ने नगर की एक गणिका से गन्धर्व-विवाह कर लिया है। उस गणिका से तीन बालक हुए हैं। तीनों की रूपरेखा मेरे पति से नहीं मिलती। न ही उनकी परस्पर मिलती है। इस पर भी गणिका कहती है कि तीनों बालक मेरे पति से हैं।
‘‘यदि यह मान लिया जाये कि वे बालक मेरे पति से है, तो दस लाख स्वर्ण मुद्राओं की सम्मत्ति उन बालकों को मिल जायेगी। यह स्वीकार नहीं होना चाहिए।’’
राजकुमार ने पूछा, ‘‘भद्रे! तुम्हारा पति आया है क्या?’’
‘‘हाँ, महाराज! वह और अन्य लोग बाहर बैठे हैं।’’
राजकुमार ने ताली बजाई। एक प्रतिहार भीतर आया तो राजकुमार ने कहा, ‘‘इस स्त्री के पति को बुलाओ।’’
एक प्रौढ़ावस्था का पुरुष, जो अति सुन्दर था, भीतर आ गया।
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