उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
मैं इस प्रस्ताव पर अवाक् रह गया। मैंने ऋषि व्यासजी को देखा था। वे नितान्त कृष्णवर्ण, पिंगलकेश, छोटी-छोटी तीव्र आँखों तथा पिचके गालों वाले व्यक्ति थे। साथ ही उनका विवाह हो चुका था और उनके सन्तान भी थी। मेरा अनुमान था कि न तो महर्षि व्यास इस नियोग को पसन्द करेंगे और न ही काशिराज की कन्याएँ इसको मानेंगी।
इस कारण मैंने कहा, ‘‘माताजी! यदि दोनों पक्ष मान जायें तो ठीक हैं।’’
‘‘आपका विचार है कि वे नहीं मानेंगे?’’
‘‘इसमें विचार की क्या बात है? यदि राज-परिवार की वृद्धि नियोग से होनी है तो जिनका नियोग होता है, वे ही सम्मति दे सकते है।’’
‘‘ठीक है। मैं अम्बिका और अम्बालिका को समझा लूँगी। आप कृष्ण द्वैयापन को समझाइये। वे जानते हैं कि मैं उनकी माता हूँ। उनको इसमें समर्थ जान मैं यह नियोग कार्य उनसे सम्पन्न हुआ चाहती हूँ। वे माँ की बात नहीं टाल सकेंगे और मान जायेंगे।’’
‘‘ठीक है माताजी! मेरा विचार है कि आप पहले महारानियों को इस कृत्य के लिए तैयार कर लें। वे काशिराज की पुत्रियाँ हैं और काशिराज की परम्परा वह नहीं जो आपके परिवार की है। अतः उनकी स्वीकृति अत्यावश्यक है। कहीं ऐसा न हो कि मैं महर्षिजी को यहाँ ले आऊँ और महारानियाँ मानें नहीं और महर्षिजी रुष्ट होकर शाप दे डालें।’’
‘‘नहीं ऐसी सम्भावना नहीं है। अम्बिका और अम्बालिका दोनों बहुत ही भली लड़कियाँ हैं और किस लड़की का मन नहीं चाहता कि उसकी सन्तान राजसिंहासन पर न बैठे?’’
‘‘तो कब जाने की आज्ञा है? यदि मैं अब आऊँ तो आने-जाने में दो मास लगेंगे।’’
‘‘कल देवव्रत से मिल लीजियेगा। वह आपको उचित आदेश दे देगा और आपकी इस यात्रा का प्रबन्ध भी कर देगा।’’
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