उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘जिस दिन मैं लामा से मिलकर आया था, उसके तीसरे दिन सवेरे ही वह मुझसे मिलने के लिए मेरे कमरे में आ पहुँचा। मिस्टर सेन अभी कार्यालय में नहीं आये थे। वास्तव में उस घर में रहने वालों में से अभी कोई जागा भी नहीं था।’’
‘‘मैं अपने स्वभावानुसार उठस्नानादि से निवृत्त हो कानूनी पुस्तकों के स्वाध्याय में लीन था कि वह मेरे कमरे में घुस आया। उसने आते ही कहा, ‘चलों, माणिक बाबू!’
‘‘कहाँ?’’
‘‘पुँगी।’’
‘‘क्यों? ’ मेरा अभिप्राय था उस समय ही क्यों?’’
‘‘आदेश है।’
‘‘किसका?’’
‘‘गुरु महाराज का।’’
‘‘मैं एक क्षण तक तो उसका मुख देखता रहा। तदुपरान्त यह विचार कर कि कदाचित् वह मुझको इस कारण साथ ले जा रहा है कि वह कैलिम्पौंग तक का खर्च चाहता है, मैंने उससे हँसी करने के लिए कहा, ‘चलो।’ मैं समझता था कि स्टीमर पर चढ़ते समय टिकट के लिए वह दाम माँगेगा तो कह दूँगा कि मैं तो रुपया लाया ही नहीं। उसने मुझे रुपया लाने का अवसर ही नहीं दिया।’’
‘‘परन्तु उसने मेरा आशय न समझते हुए कहा, ‘‘आइये।’ और वह कमरे के बाहर की ओर घूम पड़ा। मैंने फिर पूछा, ‘ऐसे ही?’’
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