उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘हाँ।’’
‘‘बिना किसी को बताये?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘मैं स्टीमर तक साथ चलने का निर्णय कर कमरे को ताला लगाये बिना उसके साथ हो लिया। उस समय मैंने केवल धोती-कुरता पहन रखा था तथा पैरों में स्लीपर थे। सिर से मैं नंगा ही था।’’
‘‘हम दोनों बैठक से निकले तो गंगा घाट की ओर पैदल ही चल दिये। कारण यह था कि उस समय अभी गाड़ी रिक्शा अथवा ट्राम आदि कुछ भी नहीं चल रही थी।’’
हमने भोजन समाप्त कर लिया था। गाड़ी अगले स्टेशन पर जाकर खड़ी हुई थी। हम दोनों उठे और डाइनिंग-हॉल ने निकल गार्ड से अपना कम्पार्टमेंट खुलवा उसमें जा पहुँचे।
बिस्तर तो मैंने पहले ही लगाया था। अतः कम्पार्टमेंट भीतर से बन्द कर मैं अपने बिस्तर पर जाकर बैठ गया। अब तक मेरे मन में साथी यात्री की कथा सुनने की रुचि उत्पन्न होने लगी थी। इस कारण उसको अपने समीप बिठाकर पूछने लगा, ‘‘तब क्या हुआ?’’
उसने बताया, ‘‘मार्ग में चलते हुए उस लामा ने कुछ नहीं कहा। मैं भी उसके साथ-साथ चलता हुआ उसकी उस अवस्था की कल्पना करने लगा था, जब वह स्टीमर के टिकट के लिए रुपया माँगेगा और मैं कहूँगा कि मैं तो लाया ही नहीं।’’
‘‘परन्तु ऐसा हुआ नहीं। हम वहाँ पहुँचे तो एक अन्य लामा वहाँ पहले ही उपस्थित था। उसने तीन टिकट मेरे साथ वाले लामा के हाथ में दे दिये। उसने कहा, ‘लो आपके लिए टिकट ले आया हूँ।’’
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