उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
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‘‘उसी सायंकाल मिस्टर सेन की बैठक में पहुँचा तो वकील साहब ने एक रजिस्टर्ड लिफाफा मेरे हाथ में दे दिया। मैंने पूछा, ‘कहाँ मिला है, आपको यह?’’
‘‘डाकिया दे गया है।’’
‘‘मैंने लिफाफा खोला। उसमें भारत सरकार का एक पत्र था, जिसमें लिखा था–
‘तिब्बत सरकार आपके तिब्बत-भ्रमण में कोई कारण नहीं समझती। इस कारण वह आपको वहाँ आने की स्वीकृति नहीं देना चाहती। यही कारण है कि भारत सरकार भी आपको तिब्बत के लिए ‘पारपात्र’ देने में कुछ लाभ नहीं समझती।’
‘‘इससे मुझे लामा की सूझ-बूझ पर विश्वास हो गया। इस पर भी मैंने जाने का निश्चय नहीं किया। मेरे मन की विचित्र अवस्था थी। मुझको तिब्बत जाने में कुछ लाभ प्रतीत नहीं होता था। वहाँ जाने में, विशेष रूप से उस ढंग से, जिस ढंग से लामा मुझको चलने के लिए कह रहा था, रुचि नहीं रही थी। इस पर भी मैं वहाँ जाने के विचार को अपने मस्तिष्क से पूर्णतया निकाल नहीं सका। रह-रहकर मेरे मन में अपने तिब्बत जाने और वहाँ की मरुभूमि तथा हिम से रही थी। मुझको कुछ ऐसा अनुभव हो रहा था कि कोई मुझे तिब्बत की ओर खींच रहा है।
‘‘अगले दिन मैंने बैंक में अपना ‘बैलेंस’ देखा और अपने सामान का, जो मिस्टर सेन के कार्यालय में एक ओर के कमरे में रखा हुआ था, निरीक्षण किया।
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