उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘करने दीजिए। मुझको इनमें से किसी की भी लालसा नहीं हुई।’’
‘‘तो हमारी प्रेमिका को ही देख लीजिए।’’
‘‘अब नहीं। मैं विश्राम करने जा रहा हूँ।’’
उससे पीछा छुड़ाकर मैं पंथागार में पहुँचा तो राज्य का एक प्रतिहार मेरी प्रतीक्षा कर रहा था। वह मेरे आगार के बाहर खड़ा था। मैं जब अपने आगार का द्वार खोलने लगा तो उसने पूछ लिया, ‘‘आप ही श्रीमान् संजय हैं?’’
‘‘हाँ! क्या काम है?’’
‘‘श्रीमान् राजकुमार ने आपको बुलाया है।’’
‘‘अभी?’’
‘‘जी!’’
आगार का द्वार मैंने नहीं खोला और वैसे ही उसके साथ चल पड़ा। वह मुझको प्रासाद के मुख्य द्वार से न ले जाकर राजप्रासाद उसी के पास थी। प्राचीर लाँघकर वह मुझको प्रधान भवन से दूर एक छोटे-से भवन में ले गया। वहाँ एक द्वारपाल बैठा था। मेरे साथ आ रहे प्रतिहार ने उसको कुछ संकेत किया तो उसने हमारे लिए मार्ग छोड़ दिया। मैं भीतर चला गया। भीतर कई आगारों, प्रांगणों को लाँघकर एक आगार के द्वार पर मुझे खड़ा कर दिया गया, जो एक संन्यासी का प्रतीत होता था। आगार में एक चटाई बिछी थी। उस चटाई पर कुशासन लगा था और इस पर एक अति ओजमय, बलशाली तथा सुन्दर युवक बैठा था। मैं समझ गया कि यही देवब्रत है।
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