उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
7
इस दलाल के चले जाने के पश्चात् मैं पंथागार को लौटने का मार्ग ढूँढने लगा। बातों-ही-बातों में मैं बहुत दूर निकल आया था। पूछ-पूछ कर मार्ग पा रहा था। जब मैं उस मार्ग पर पहुँचा, जहाँ मैंने छज्जों पर स्त्रियों के झुंड-के-झुंड खड़े देखे थे, तो अपना मार्ग स्मरण कर लम्बे-लम्बे पग उठाता हुआ पंथागार की ओर लौटने लगा। सामने मुझे वह विशालकाय व्यक्ति, जिसमें भोजन के समय राजनीति पर विवाद चल पड़ा था, आता दिखाई दिया। वह मुझको देख मुस्कराया और मेरे सामने आकर खड़ा हो गया। मैंने प्रश्न-भरी दृष्टि से उसके मुख की तरफ देखा तो उसने पूछ लिया, ‘‘तो लौटे जा रहे हैं आप?’’
‘‘एक दिन मैं ही बहुत-कुछ देख लिया है।’’
‘‘तो कुछ पसन्द नहीं आया?’’
‘‘पसन्द-ना-पसन्द का प्रश्न ही नहीं था। हाँ, ज्ञान में वृद्धि बहुत हुई है।’’
‘‘मैं समझता हूँ कि जो कुछ मैं देखने जा रहा हूँ, वह आपने कहीं नहीं देखा होगा।’’
‘‘वह क्या?’’
‘‘वैसी अप्सरा-सी वेश्या।’’
‘‘मुझको वेश्याओं में रुचि नहीं है।’’
‘‘तो यहाँ क्या करने आये हैं? यह तो वेश्याओं का बाज़ार है। देखा नहीं, ये छज्जों पर खड़ी तुम्हारे-जैसे युवकों की प्रतीक्षा कर रही है।’’
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