उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
|
137 पाठक हैं |
हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘हाँ।’’
‘‘तो आप कोई धनी व्यक्ति हैं?’’
‘‘हाँ, इतना निर्धन नहीं कि अपनी इतनी मूल्यवान् वस्तु को कुछ रजत-कणों पर विक्रय कर दूँ।’’
‘‘आपने पहले नहीं बताया। आपको भोग-विलास के लिए अवसर दिला सकता हूँ। बताइए, आप पूर्ण रात्रि-भर के लिए कितना कुछ व्यय कर सकते हैं?’’
अब मुझको अपने साथी से अरुचि होने लगी थी। मैंने कहा, ‘‘सुनो श्रीमान्! मैं अभी देवलोक से आ रहा हूँ। मेनका, विश्वामित्र के तप को भंग करने वाली अपनी माँ के समान ही नामवाली, मेनका की लड़की, मुझसे सहवास पाने के लिए पन्द्रह दिन तक याचना करती रही थी। इसपर भी मैंने अपना शुक्र उसको देना अपव्यय समझा था।’’
‘‘ओह! तो आपने पहले क्यों नहीं बताया? अच्छा, तो मैं अब चलता हूँ।’’
वह मुझको वहीं खड़ा छोड़कर चला गया।
|