उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘बहुत लाभ बनाते हैं। ये लोग।’’
‘‘हाँ, यह व्यवसाय देवलोक से निर्वासित एक व्यक्ति ने आरम्भ किया है। उसने बहुत से यन्त्र लगाये हैं और उनकी सहायता से वह शुक्र प्राप्त कर, उसको सुरक्षित रखता है और फिर समय पर सिंचन करता है।’’
‘‘कितने ग्राहक मिल जाते होंगे उसको?’’
‘‘यह देखिये, इस भाग में लगभग एक सौ गृह हैं। इन सब में यह क्रिया होती है। प्रायः सब घर भरे हुए हैं। सन्तानेच्छा वाली स्त्री यहाँ रात्रि के समय आती है और उसको तीन दिन तक यहाँ रहना पड़ता है। कई बार तो इससे भी अधिक दिन तक रहना आवश्यक हो जाता है। इन ग्रहों में आई स्त्रियाँ बाहर नहीं निकलतीं। उनके सम्बन्धी भी उनसे रात्रि के समय ही मिलने आते हैं। वे पुरुष भी, जो शुक्र-विक्रय करने आते हैं, अपना मुख दिखाना नहीं चाहते। सबसे बड़ी बात यह है कि स्त्री-पुरुष को परस्पर देखने नहीं दिया जाता?’’
‘‘यदि कार्य उचित नहीं माना जाता तो इसको लोग करते क्यों हैं?’’
‘‘इस, कारण कि इस नगर में वेश्यागमन इतना बढ़ गया है कि पुरुष सन्तानोत्पत्ति के अयोग्य होते जाते हैं। यह वेश्यागमन गांधार, काम-भोज और कुछ अंशों में देवलोक से विस्तार पाया है। संसार-भर का धन यहाँ एकत्र हो रहा है और संचित धन को व्यय करने का सबसे अधिक रसमय ढंग तो वेश्यागमन ही है। द्यूत-क्रीड़ा पर भी धन व्यय होता है, परन्तु वह तो केवल धन एक हाथ से निकलकर दूसरे हाथ में जाने का साधन है। उससे धन एक स्थान पर एकत्र मात्र हो जाता है, विपरित नहीं होता। वेश्यागमन से धन का वितरण हो जाता है।’’
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