उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘नहीं विद्वद्वर! यदि आपकी इच्छा हो तो मैं आपको अपने कथन का प्रमाण दे सकता हूँ। आप सुन्दर है, युवा है और आपके पास कुछ अधिक धन भी नहीं है। आपको आय भी हो जायेगी और किसी भले परिवार की वंश-परम्परा भी चल जायेगी।’’
‘‘तो यहाँ गन्धर्व-विवाह होते हैं?’’
‘‘नहीं, विवाह नहीं होते। सम्भोग-क्रिया भी नहीं होती। केवल आपको अपना शुक्र देना पड़ेगा। आपको उसका मूल्य मिल जायगा। आप चले जाइयेगा। आपका शुक्र सन्तान की इच्छा रखने वाली स्त्री के गर्भाशय में आरोपित कर दिया जायेगा। आप उस स्त्री को नहीं देख सकेंगे, वह आपको नहीं देख सकेगी। उसके गर्भ स्थित हो जायेगा।’’
‘‘परन्तु धन व्यय करने पर भी पुत्र की इच्छा रखने वाले को कन्या मिल गई तो?’’
‘‘पुत्र तथा पुत्री के उत्पन्न होने पर यथासम्भव नियन्त्रण किया जा सकता है। परन्तु अंगहीन होने को रोका नहीं जा सकता।’’
‘‘प्रायः कितना कुछ मिल जाता है, इस प्रकार शुक्र-विक्रय करने पर?’’
‘‘यह पुरुष की आयु, रूप-रंग पर निश्चित किया जाता है। आपकी इच्छा हो तो एक सौ रजत तक दिलवा सकूँगा।’’
‘‘और कितने मूल्य में यह सन्तान की इच्छा रखने वाली स्त्री को दिया जायेगा?’’
‘‘यदि पुत्र की इच्छा रखने वाली स्त्री आयेगी तो प्रथम उसके क्षेत्र को पुत्र बनाने के योग्य बनाया जायेगा। इस कारण उसका भी मूल्य लिया जाता है। सब मिल-मिलाकर पाँच सौं रजत बुक मूल्य हो जाता है। जो स्त्रियाँ ऐसे ही शुक्र लेती है तथा पुत्र अथवा पुत्री अपने भाग्य पर छोड़ देती है, उनको तीन अथवा चार सौ रजत में वह शुक्र मिल जायेगा।’’
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