उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘इसके बताने की आवश्यकात नहीं। आप तो भ्रमण कर ही रहे हैं। मैं आपके साथ चलकर आपको नगर दिखाऊँगा।’’
‘‘जैसे तुम्हारा मन करे।’’
मैं चलता गया। मुझको कुछ क्रय तो करना नहीं था। दो घड़ी भर इकट्ठे घूमते रहे। इन मार्गों पर तो इतनी भीड़ थी कि चलने हुए कन्धे-से-कन्धा भिड़ता था। इसके विपरीत कई मार्ग ऐसे भी थे, जहाँ कोई पक्षी तक नहीं फड़क रहा था। ऐसे एक मार्ग पर मैंने साथ चलने वाले व्यक्ति से पूछा, ‘‘यहाँ सुनसान क्यों है?’’
‘‘यहाँ लोग वह काम करने आते हैं, जो वे किसी को बताना नहीं चाहते। इस कारण यहाँ दिन में कोई आता-जाता नहीं। रात को अँधेरा हो जाने के पश्चात् और वह भी चोरी-चोरी आते हैं।’’
‘‘ऐसा कौन-सा कार्य हो सकता है, जिसके विषय में इतना लुकाव-छिपाव किया जाये?’’
‘‘यहाँ भले घर की स्त्रियाँ बच्चे लेने आती है।’’
‘‘बच्चे? क्या वे यहाँ बिकते हैं?’’
‘‘नहीं, उन स्त्रियों के बच्चे पैदा किये जाते हैं।’’
मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं थी। ऐसे कार्य के लिए नगर का भाग नियत किया जाना तो और भी आश्चर्यकारक था। मेरे मुख पर आश्चर्य की रेखाएँ देख वह व्यक्ति खिलखिलाकर हँस पड़ा। मैंने कहा, ‘‘मुझको अनृत बात बताकर मेरी हँसी उड़ाना चाहते हो।’’
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