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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552
आईएसबीएन :9781613010389

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


‘‘कैसे पधारे हैं इस नगर में?’’

‘‘भ्रमणार्थ।’’

‘‘यदि आज्ञा हो तो इस नगर की शोभा दिखाने का कार्य मैं कर दूँ।’’

‘‘आप यह क्यों करेंगे?’’

‘‘कुछ आपके द्वारा आय करने के लिए।’’

‘‘मैं तो एक निर्धन ब्राह्मण कुमार हूँ। मैं क्या दे सकूँगा आपको?’’

‘‘भ्रमण पर तो व्यय करने के लिए होगा ही आपके पास?’’

‘‘इतना नहीं कि किसी दूसरे को दे सकूँ।’’

‘‘परन्तु अपने सुखभोग के लिए तो है न। मैं आपसे कुछ नहीं लूँगा। मैं तो उससे प्राप्त कर लूँगा जिसमें आप अपनी आवश्यकता पूर्ण करेंगे।’’

मैं समझ गया कि यह कोई दलाल है। मुझे कुछ क्रय करना नहीं था, इस कारण मुझसे उसको कुछ आय की आशा नहीं होनी चाहिए थी। अतएव मैंने पुनः कहा, ‘‘आज मुझको कुछ क्रय नहीं करना, इस कारण मुझसे आज तुमको कुछ नहीं मिलेगा।’’

‘‘यह तो मेरा कार्य है कि मैं आपसे कुछ क्रय करने की रुचि तथा इच्छा उत्पन्न करूँ। इसीसे तो मेरे जैसे लोगों का निर्वाह होता है।’’

‘‘आप यह रुचि कैसे उत्पन्न करेंगे?’’

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