उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
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मैं पंथागार की ओर लौटने लगा। मार्ग में मैं नगर की शोभा देखता हुआ जा रहा था। नगर अत्यन्त सुन्दर बना था। विशाल मार्ग थे, उच्च अट्टालिकाएँ थीं, जिनके छज्जे मार्ग की ओर बढ़े हुए थे। घरों के नीचे तल पर दुकानें थीं, जिनमें स्त्रियों के श्रृंगार के प्रसाधन, वस्त्र, भूषण इत्यादि सामान भरा हुआ था। इन दुकानों पर लिखा हुआ था, स्त्रियों के उपयोग की सब प्रकार की सामग्री।
मकानों के छज्जों पर स्त्रियों के झुंड़-के-झुंड खड़े, मार्ग पर चलने वालों की शोभा देख रहे थे। मैं चलता-चलता एक अन्य मार्ग पर जा पहुँचा। वहाँ अनाज की दुकानें थीं। दुराने अनाज से ठसाठस भरी हुई थीं। मकानों के छज्जे यहाँ पर भी थे, परन्तु उनमें स्त्रियाँ खड़ी दिखाई नहीं दीं। फिर मैं एक तीसरे मार्ग पर जा पहुँचा। यहाँ शस्त्रास्त्र बिक्री के लिए भरे पड़े थे। मार्ग पर सैनिक और युवक आ-जा रहे थे। पहले मार्ग पर स्त्रियाँ अधिक दिखाई दी थीं, पुरुष विरले ही थे। दूसरे मार्ग प्रायः वृद्ध स्त्रियाँ तथा पुरुष घूमते हुए क्रय-विक्रय कर रहे थे। इस तीसरे मार्ग पर तो स्त्रियाँ थीं ही नहीं। सर्वत्र पुरुष ही थे और वे भी युवा पुरुष।
मैं एक अन्य मार्ग पर पहुँचा। यह कपड़े की मण्डी प्रतीत होती थी। इनमें स्त्री-पुरुष सभी लोग थे और विक्रय कर रहे थे।
इसी प्रकार नगर की शोभा तथा समृद्धि देखता हुआ मैं घूम रहा था। इस समय एक अपरिचित व्यक्ति मेरे साथ चलते हुए मुझसे बातें करने लगा। उसने बात आरम्भ कर दी, ‘‘श्रीमान् यहाँ परदेशी प्रतीत होते हैं।’’
‘‘जी।’’ मैंने अधिक बात न करने के विचार से केवल इतना ही कहा।
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