उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
मैंने केवल यह कहा, ‘‘यह आप लोगों को भी सीखना चाहिए। बिना तर्क के आप उचित और अनुचित में भेद नहीं जान सकते।’’
भोजनोपरान्त मैं राजप्रासाद में जा पहुँचा। मैंने द्वारपाल को अपना नाम, अपने पिता का नाम और अपने रहने का स्थान बताकर कहा, ‘‘मैं राजकुमार देवव्रतजी से मिलना चाहता हूँ।’’
द्वारपाल ने कह दिया, ‘‘वे आजकल किसी से नहीं मिलते।’’
‘‘ऐसा करो। मेरा नाम तथा परिचय श्रीमान् राजकुमारजी की सेवा में भेज दो। साथ ही यह निवेदन कर देना कि मैं देवलोक से सुरराज इन्द्र के आदेश से उपस्थित हुआ हूँ। अभी मैं दक्षिण पथ के पंथागार में ठहरा हूँ। जब उनकी इच्छा मिलने की हो, आज्ञा भेज दें, मैं उपस्थित हो जाऊँगा।’’
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