उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
|
137 पाठक हैं |
हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
इस पर भी मेरी पत्नी ने पत्र पढ़कर नहीं सुनाया। मैंने भी यही समझा कि कुछ स्त्रियों की बात ही पूछी होगी, अतः चुप रहना उचित समझा।
मैंने माणिकलाल द्वारा भेजा हुआ कागजों का पुलिन्दा देखा। दो सौ दस पृष्ठ टाईप किये हुए थे। अन्त में लिखा था, ‘शेष फिर’ और आरम्भ में लिखा था, ‘आज से पाँच सहस्त्र वर्ष पूर्व का रौजनामचा।’
इसको पढ़, पहले तो मुझको कुछ भय-सा लग गया। मैंने समझा कि माणिकलाल एक नवीन महाभारत लिखने जा रहा है। इस विचार से कि इस पुलिन्दे को पढ़कर समय व्यर्थ गँवाना होगा, मैंने उसको एक फाइल में रख अलमारी में रख दिया। परन्तु जब-जब भी मैं अलमारी खोलता था, उस फाइल को देख वह कथा पढ़ने की मेरी उत्सुकता उत्पन्न होने लगती थी। एक दिन मैं अपनी लालसा को दबा नहीं सका। मैंने उन कागजों को निकाल लिया और पढ़ना आरम्भ कर दिया।
उस कथा में मुझे वही रस मिला, जो मुझे माणिकलाल की वाण मैं मिलता था। अतः जब पढ़ने बैठा तो फिर पढ़ता ही गया और बिना समाप्त किए नहीं छोड़ सका।
अपने देवलोक जाने की कथा, जो वह मुझको बता चुका था, लिख, उसने आगे लिखा था–
|