उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
|
137 पाठक हैं |
हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘यह मैं आपको क्यों भेज रहा हूँ और स्वयं अपने पास क्यों नहीं रखता, यह मेरा रहस्य है, जिसका उद्घाटन पूर्ण विवरण लिखने के पश्चात् करुँगा।
‘अपनी पत्नी जी को मेरा नमस्कार कहिएगा। कोई सेवा हो तो लिखिएगा। अभी बच्चा होने तक तो मैं बम्बई में रहने का विचार रखता हूँ। उसके बाद नोरा की इच्छा विदेश भ्रमण की है।
–माणिकलाल।’
मैंने अपनी पत्नी का पत्र उसको दिया तो उसने पढ़कर चुपचाप लपेट कर रख दिया। उसने बताया नहीं कि नोरा ने क्या लिखा है? मैंने साधारण रूप से पूछा, ‘‘कैसी है नोरा?’’
‘‘बहुत मजे में मालूम होती है। उसने पिछले डेढ़-दो मास का अनुभव लिखा है और इसमें मुझसे सम्मति माँगी है। मैं विचार करती हूँ कि उसने सम्मति मुझसे ही क्यों माँगी है? अपनी माँ से क्यों नहीं?’’
‘‘तुम उसकी सास का पार्ट जो खेल रही हो।’’
‘‘पर वह तो उस नाटक को सत्य कर रही प्रतीत होती है।’’
‘‘तो हो जाय। कुछ घाटे का सौदा तो है नहीं।’’
‘‘तो लिखूँगी। कम-से-कम कण्ठी का मूल्य तो चुकाना ही पड़ेगा।’’
मैंने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘कण्ठी का मूल्य तो दे भी सकोगी। परन्तु कण्ठी देने में भावना तो कदाचित् अनमोल है। उसका मूल्य उसी के सिक्के में अर्थात् सद्भावना में देना होगा।’’
|