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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552
आईएसबीएन :9781613010389

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।

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अपने कार्य में व्यस्त होने के कारण मैं यह सब कुछ भूल गया। मेरी पत्नी की इच्छा थी कि मैं माणिकलाल से प्राप्त की गई अँगूठी अवश्य पहन लूँ, परन्तु इतनी मूल्यवान वस्तु पहने रखना मुझको भला प्रतीत नहीं होता था। वह तो अकारण चोरों को निमन्त्रण देने की बात थी। इस कारण मैंने अँगूठी एक बैंक के लॉकर में अपनी पत्नी के अन्य आभूषणों के साथ रख दी। यही बात उसने अपनी कण्ठी के लिए की। इस प्रकार माणिकलाल और नोरा हमारे जीवन से निकल गए। धीरे-धीरे मैं अपने कार्य में अत्यन्त व्यस्त रहने के कारण भारत-युद्ध के कारणों के विषय में जो कुछ माणिकलाल ने बताया था, सर्वथा विस्मरण कर चुका था। इस समय मुझको एक पार्सल मिला। यह रजिस्ट्री किया हुआ डाक पार्सल था और भेजने वाले का नाम माणिकलाल था।

इस पार्सल के मिलते ही मेरे मस्तिष्क से वे सब बातें चक्कर काटने लगी, जो उसकी मेरे साथ हुई थी। मैंने उत्सुकतापूर्वक पार्सल खोला। उनमें दो पत्र थे। साथ में एक पुलिन्दा टाईप किये हुए कागजों का था। पत्रों में एक पत्र नोरा का मेरी पत्नी के नाम था और दूसरा माणिकलाल का मेरे नाम।

मेरे पत्र में लिखा था–

‘श्रीमान् वैद्यजी!’
‘‘आज नोरा को घर पर आये ठीक छह मास हो गये हैं। मुझे यह बताते हुए हर्ष हो रहा है कि इस काल में एक क्षण भी ऐसा नहीं व्यतीत हुआ, जब मुझमें और नोरा में किसी भी विषय पर मतभेद हुआ हो। मुझको स्मरण है कि महाभारत-काल में भी मैंने पति-पत्नी में इतनी सामंजस्यता नहीं देखी थी। ऐसा प्रतीत होता है कि मेरा और उसका मन दो वाद्य-यन्त्रों की भाँति है, जो एक ही स्वर में बँधे हुए हैं और बहुत मधुर बजते हैं।’’

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