उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘माणिकलाल ने मेरा यही नाम रखा है।’’
‘‘ओह! और अपने को संजय समझता है।’’
‘‘वह कुछ भक्की दिमाग का आदमी है। उसने मेरा नाम युधिष्ठिर रखा है और अपना नाम संजय।’’
‘‘तो ऐसा भी कुछ नाम रखा होगा।’’
‘‘अवश्य रखा होगा, परन्तु अभी तक बताया नहीं।’’
इस पर वह हँसने लगी। मैंने पैकेट खोल डाला। उसमें दो डिबिया थीं। एक पर लिखा था, ‘पूज्य माताजी के लिए’ और दूसरे पर लिखा था, ‘पूज्य धर्मराज जी के लिए।’’
मैंने अपनी डिबिया खोली तो उसमें एक अँगूठी थी, जिसमें एक बहुत ही सुन्दर हीरा लगा था। उस डिबिया में बिक्री का सर्टिफिकेट था। उसमें मूल्य नहीं लिखा था। केवल यह लिखा था, मूल्य रसीद नम्बर दो सौ तीस द्वारा प्राप्त हुआ।’
अब मैंने दूसरी डिबिया खोली। उसमें एक स्वर्णकण्ठी थी। इसका भी बिक्री का सर्टिफिकेट उसमें रखा था। मूल्य न लिख कर केवल रसीद नम्बर ही लिखा हुआ था।
मैं जवाहरात के विषय में कुछ अधिक ज्ञान नहीं रखता था। इस पर भी यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता था कि वे कई सहस्त्र रुपयों के लागत के थे। भूषणों के साथ एक पत्र भी था। इसमें लिखा था–
‘प्रिय वैद्य जी! मैं आपका तथा आपकी धर्मपत्नी का मेरे माता-पिता के स्थानापन्न बन, मेरी सहायता करने के लिये अत्यन्त आभारी हूँ। इस आभार के अनुरूप ही यह तुच्छ भेट सेवा में कर रहा हूँ।
नमस्कार।’
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