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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552
आईएसबीएन :9781613010389

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


‘‘आपके प्रबन्ध करने में योग्यता की मैं प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकता। आपने अकेले ही अपने विवाह में सारा प्रबन्ध इतने सुचारु रूप से किया था मैं चकित हूँ।’’

‘‘इसमें कुछ विशेषता नहीं है। धन और धन से उचित सेवकों की उपलब्धि ही इसमें कारण है। मैंने अमृतसर में सारा प्रबन्ध करने के लिए एक एजेंट को एक सहस्त्र रुपया देकर एक मास पूर्व ही भेज दिया था। कल वहाँ से चलते समय, सब प्रकार के व्यय-बिल चुकता करने के पश्चात् मैंने उसको सवा सौ रुपया इनाम भी दिया है। मैं उसके प्रबन्ध से सर्वथा सन्तुष्ट रहा हूँ।’’

वास्तव में मेरे मन पर यह बात अंकित होती जाती थी कि उसकी पूर्व-जन्म की बात ठीक हो, अथवा न हो परन्तु उसमें कार्य-पटुता तो अवश्य उच्चकोटि की है।

हवाई जहाज पालम अड्डे से पाँच बजे छूटता था और हम घर से चार बजे मोटर में चल पड़े। अन्य सब बाराती तो रेलगाड़ी से तथा कुछ ‘रोल्ज़ रॉयज़’ कार से बम्बई के लिए चले गए थे।

ठीक समय पर वे हवाई जहाज पर बैठे और बम्बई के लिए रवाना हो गए।

हम हवाई अड्डे से लौटे तो मेरी पत्नी ने कहा, ‘‘ये आपके मित्र बहुत ही विचित्र हैं। जाने से पूर्व यह एक पैकेट आपकी मेज पर भूल गये हैं।’’

मैंने पैकेट उठाया तो उस पर इस प्रकार लिखा था–

‘‘सादर भेंट, श्री धर्मराज युधिष्ठिर जी की सेवा में। –संजय।’’

मैं यह पढ़ खिलखिला कर हँस पड़ा। मैंने कहा, ‘‘यह मेरे लिए है।’’

‘‘आप युधिष्ठिर कबसे बने हैं?’’

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