उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘इस पर भी मैं उसको अपना पूर्व-परिचय देना नहीं चाहता। अतः आप भी इन बातों को अपने तक ही सीमित रखें।’’
इस समय मुझको माणिकलाल की आर्थिक स्थिति के विषय में कुछ जानने की लालसा जाग पड़ी। मैंने उसकी बात स्वीकार करते हुए कहा, ‘‘देखिए मुझको अभी तक भी आपकी ये बातें मस्तिष्क में एक परिस्थिति उत्पन्न होने के कारण प्रतीत होती हैं। इस पर भी यदि आप इस विषय पर कुछ लिखेंगे तो वह मैं ताले में सुरक्षित रखूँगा। उसका प्रयोग हो सकेगा अथवा उसका मुझको क्या लाभ होगा, यह हम पीछे मिलकर विचार कर लेंगे।
‘‘परन्तु मित्र! इस समय तो मेरे मन में, एक बात बार-बार उठ रही है। आपने कितना रुपया इस विवाह जैसे तमाशे पर व्यय कर दिया होगा। मेरे विचार में, किये गए इस अपव्यय से आपने कुछ अच्छा किया है, ऐसा प्रतीत नहीं होता।’’
‘‘मैं समझता हूँ कि इस विषय में आपको चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं। मेरे पास धन का अटूट कोष है। इस कारण जो लगभग दस सहस्त्र रुपया मेरा व्यय हुआ है, वह मेरे लिए कुछ भी गणना नहीं रखता।’’
‘‘जब गुरुदेव सुरेश्वरजी ने मुझको योगबल से पिछली बातें बताईं और भविष्य में होने वाली बातें जानने की योग्यता दिलाई है तो मुझको छिपी वस्तुओं को देखने की योग्यता भी प्राप्त हो गई है। इससे मुझको संसार के असीम धन का ज्ञान है और जब भी मुझको आवश्यकता होती है, मैं उसमें से उठाकर प्रयोग कर लेता हूँ।
‘‘देखिये, मैं इस समय बम्बई में एक बहुत बड़ा धनी आदमी हूँ।’’
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