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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552
आईएसबीएन :9781613010389

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


‘‘यह तो आप जानते ही हैं कि मन में संस्कार सुषुप्तावस्था में पड़े रहते हैं। वे जाग्रत तब होते हैं, जब उनको किसी बाहरी घटना से उत्तेजना मिले। यह तो हम साधारण जीवन में भी देखते हैं। एक बात के स्मरण हो आने से अथवा देखने-सुनने से, उससे सम्बन्धित दूसरे संस्कार जाग्रत हो जाते हैं। यही बात नोरा के उस कश्मीरी पोशाक खरीदने से हुई।

‘‘नोरा कश्मीर में मेरी पत्नी रही है। यह नागकन्या थी। मैं महाराज भीष्म देवव्रत के आदेशानुसार किसी राज्य-कार्य से कश्मीर गया था। वहाँ एक नाग-वंशीय श्रेष्ठी के घर पर ठहरा था। उसकी कन्या से मेरी घनिष्ठता हो गई। वह यही नोरा थी। इससे एक सन्तान हुई। फिर मैं वहाँ से हस्तिनापुर लौट आया। उस नागकन्या ने मेरे साथ आने से इन्कार कर दिया। मैं जब लौट आया तो उसने एक दूसरा विवाह कर लिया, परन्तु शीघ्र ही अपने दूसरे पति से असन्तुष्ट हो, वह मेरे पास हस्तिनापुर आ गई और पुनः मेरे पास रहने का आग्रह करने लगी। इस समय तक मैंने भी दूसरा विवाह कर लिया था। मेरी दूसरी पत्नी, यद्यपि नागकन्या से कम सुन्दर थी परन्तु आर्यकन्या होने से अधिक निष्ठावान थी। मैं नागकन्या को भी अपने साथ रखने के लिए तैयार था, परन्तु वह चाहती थी कि मैं अपनी दूसरी पत्नी को घर से निकाल दूँ। मैंने ऐसा नहीं किया और वह पुनः मुझको छोड़कर चली गई। इस बार वह वन में किसी ऋषि के आश्रम में जाकर रहना चाहती थी, परन्तु वन में किसी सिंह द्वारा मार डाली गई थी।

‘‘आज उसने यह पोशाक खरीदनी चाही तो मैंने पूछा, ‘इसमें क्या विशेषता है?’

‘‘उसने टोपी में लगे पंख की ओर संकेत कर कहा, ‘यह आप कही नहीं पायेंगे। यह मुझको बहुत भला लग रहा है।’ उसके इस प्रकार कहने से मुझको उक्त आपबीती घटना स्मरण हो आई। इस पर मैं विस्मय से उसका मुख देखने लगा। मुझको अब उसकी रूपरेखा भी उस नागकन्या से मिलती प्रतीत होने लगी है।

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