उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘नहीं मुगलों में क्या शान रही होगी? मैं तो अपने को अभी भी कौरवों के समृद्घ राज्य में वास करता हुआ अनुभव कर रहा हूँ।’’
‘‘नोरा ने कहा था कि उसके पिता शान-शौकत पसन्द करते हैं। मैं उनकी इच्छाओं और अभिलाषाओं की पूर्ति करना चाहता हूँ।’’
मैं चुप रहा। इस पर उसने कहा, ‘‘आप ये अपने कपड़े पहन लीजिए।’’
‘‘ये मुझे फिट’ आयेंगे क्या?’’
‘‘आयेंगे। मैंने अपने अनुमान से ठीक बनवाये हैं। आप पहनकर तो देखिए।’’
मैंने वे वस्त्र पहने। वे बिलकुल ठीक बैठे थे। मैं विस्मय कर रहा था।
इस समय माणिकलाल ने भी अपने कपड़े पहन लिये। उन चमचमाते कपड़ों में निस्सन्देह उसका तेज दुगुना हो गया था। बनारसी तिल्लीदरर पगड़ी पहन और दुपट्टा लगा, वह प्रांगण में पूजा कर जा बैठा। बाराती एकत्र हो गए थे।
मैं भी माणिकलाल के समीप जा बैठा। स्वस्तिवाचन पढ़कर मुकुट बाँध दिया गया। लोगों ने केसर लगाकर पुष्प-मालाएँ पहनाईं माणिकलाल के मित्र की पत्नी सरस्वती ने उसकी आँखों में काजल लगाया।
इस प्रकार बारात तैयार हो गई। बारात के साथ पाँच बाजे थे और एक सौ बीस गैस के हंडे थे। बीस मोटर गाड़ियों में बाराती बैठे थे और दूल्हा, ‘रोल्ज रॉयल डी-लक्स, सैवन सीटर’ में बैठा था। मैं उसके साथ था। मुझकों एक थैली, जिसमें एक सहस्त्र के लगभग चाँदी के रुपये थे, दे दी गयी और माणिकलाल ने बताया कि इनको मैं उस समय निछावर करूँ, जब लड़की के पिता और मुझमें मिलनी हो।
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