उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
|
137 पाठक हैं |
हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
इन सबके अतिरिक्त भाड़े पर किये हुए बाजीगर थे, जो बारात के साथ-साथ कलाबाजियाँ अथवा गदका-छड़ी के खेल दिखाते जा रहे थे। आधे मील के लगभग का मार्ग हमने डेढ़ घण्टे में समाप्त किया। अमृतसर में इस बारात की धूम मच गई। इतनी शान-शौकत इससे पहले किसी बारात में नहीं की गई होगी।
हम ठीक समय पर नटवरलाल की कोठी के बाहर जा पहुँचे। नटवरलाल अपने सम्बन्धियों और मित्रों के साथ बारात का स्वागत करने के लिए पुष्पमालाएँ लिये खड़ा था। ऐसा प्रबन्ध किया गया था कि पूरी बारात नटवरलाल के सामने से गुजर जाये और वह उसकी सजावट और शान देखे। सबसे अन्त में दूल्हे की गाड़ी थी और वह ठीक नटवरलालजी के सामने ले जाकर खड़ी कर दी गई। दूल्हा और मैं उसमें से उतरे और मिलनी आरम्भ हुई। पिता की ओर से मैंने मिलनी थी। नटवरलालजी ने एक सौ एक रुपया मिलनी का मुझको दिया और मैंने पाँच सौ रुपये उन पर से निछावर, उनके सेवकों के लिए दिये और फिर पाँच बार मुट्ठी भर-भरकर रुपये भीड़ से बाहर तमाशा देखने वालों पर फेंके।
नियत समय पर भोज हुआ और फिर संस्कार आरम्भ हो गया। वेदी के एक ओर वर और वधू बैठे थे। उनके सामने विवाह कराने वाला पुरोहित था। यज्ञशाला के दूसरी ओर दोनों लड़की और लड़के के सम्बन्धी बैठे थे। जब लड़की आई तो लड़की के साथ, सन्तोष, मेरे साले नरेन्द्र की पत्नी भी थी। वह लड़की के समीप ही बैठ गई। अब मैं समझ गया कि नोरा ही सन्तोष की सहेली है, जिसके विवाह पर वह मेरी धर्मपत्नी को लेकर आई है। परन्तु वह यहाँ पर नहीं थी। मैं विचार करने लगा कि वह कहाँ हो सकती है?
पण्डित ने विवाह आरम्भ किया तो नोरा की माँ और कुछ अन्य स्त्रियाँ कोठी के अन्दर से निकलीं। इनमें मेरी पत्नी भी थी।
मेरी पत्नी ने मुझको वेदी पर, मिलनी की पुष्पमाला पहन बैठे देखा तो मुस्कराई और उसे देख मैं हँस पड़ा।
विवाह के पश्चात् जब लड़की को विदा करने के लिए तैयार किया जा रहा था, मैंने माणिकलाल से अपनी पत्नी का परिचय करा दिया। उसने हाथ जोड़कर नमस्ते की और बोला, ‘‘माताजी! मैं तो निराश हो चुका था। वैद्यजी ने तो कहा था कि आप नहीं आ सकेंगी।’’
|