उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘वाह! तब तो बहुत-बहुत बधाई हो। वर के पिता को कुछ मिलेगा भी क्या?’’
‘‘मैंने पूछा नहीं। तुमको भी चलने का निमन्त्रण है। अब तो तुम सास की पदवी पा जाओगी।’’
‘‘परन्तु नरेन्द्र की पत्नी सन्तोष मुझको अपनी एक सहेली के विवाह पर, अपने साथ ले चलने के लिए कह रही है।’’
‘‘तो यह बात है।’’
‘‘हाँ, इसीलिए तो नरेन्द्र कल नहीं जा रहा।’’
इसके पश्चात् बिना किसी काम के भी मैं बहुत व्यस्त व्यक्ति हो गया। छह तारीख को प्रातः स्टेशन पर गया। उसी मध्याह्न को मुझे माणिकलाल के निवास-स्थान पर जाना पड़ा। भोजन भी वहीं किया और सायंकाल छह बजे बारात में सम्मिलित होने की तैयारी होने लगी।
माणिकलाल मुझको अपने कमरे में ले गया और रेशमी कुरता, धोती, पगड़ी नया जूता आदि दिखाकर कहने लगा, ‘‘ये आपके लिए है, पहन लीजिए।’’
इन कपड़ों के साथ ही उसके अपने कपड़े रखे थे। रेशमी पायजामा, कुरता और उस पर किमखान की अचकन, बनारसी पगड़ी और पेशावरी तिल्लई जूता था। मैं इन कपड़ों को देख चकाचौंध रह गया। फिर हँसते हुए कहा, ‘‘ऐसा प्रतीत होता है कि आपका मस्तिष्क तो मुगलों के राज्य में विचर रहा है।’’
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