उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
मेरे श्वसुर दिल्ली में भूषण और वस्त्रादि खरीदने आये थे। इस खरीद में मेरी पत्नी उनको राय देने वाली थी। अतएव दो और तीन मार्च को वे खरीद करते रहे। बहुत कठिनाई से हम तीन मार्च की रात फ्रन्टियर मेल से रवाना हो सके।
चार को प्रातः काल हम अमृतसर पहुँच गये। चार तारीख को मैं अपने श्वसुर के घर रहा और सायंकाल हम लोग उस मन्दिर में जा पहुँचे, जहाँ विवाह होना था। वहाँ का सारा प्रबन्ध लड़की वालों के हाथ में था। अतः हमें किसी प्रकार का भी कार्य करने को नहीं था।
मेरी पत्नी का भाई, नरेन्द्र इंजीनियर था। वह कलकत्ता की एक फर्म में नौकर था। उसे विवाह के पश्चात् कलकत्ता चले जाना था और वहीं पर उसने रहना था। अतः विवाह को इतना सरल और सादा रखने का यत्न किया गया था, जितना संभव था।
मन्दिर के प्रांगण में लगभग चार-पाँच सौ, दोनों पक्षों के सम्बन्धी व मित्र एकत्र थे और विवाह सबकी शुभ कामना से समाप्त हुआ। हम लड़की को लेकर, मोटरों में अपने घर चले आये। अगले दिन पचास के लगभग, हमारी ओर के निकट सम्बन्धी, लड़की पक्ष वालों के मेहमान थे। दोपहर को भोजन था और पीछे लड़की को दहेज देकर विदा कर दिया गया।
घर पहुँचकर मेरी पत्नी, जो नवविवाहिता वधू की सास का कार्य कर रही थी, अपनी ओर से सम्बन्धियों को, दहेज में मिले भूषण वस्त्रादि दिखाने में लीन हो गई।
इस समय मुझको माणिकलाल का स्मरण हो गया। मैं उसके छपे कार्ड में पता देख उसके बँगले पर जा पहुँचा।
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