उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘छह मार्च को।’’
‘‘तो आप उसकी बारात में भी जा सकेंगे।’’
‘‘परन्तु वह तो तुमको भी निमंत्रण दे रहा था।’’
‘‘मैं तो उसको जानती तक नहीं। बिना जान-पहचान के कैसे जा सकती हूँ?’’
‘‘बात यह है कि मैं तो कुछ कह ही नहीं रहा। उसका निमंत्रण है। उसने कहा था कि मैं उसके विवाह पर अवश्य पहुँचूँगा। अब देखें।’’
‘‘मैं तो नहीं जा सकूँगा। मुझको बहुत काम होगा। सारा भार मेरे ऊपर ही है।’’
‘‘अच्छी बात है। मैं उसके विवाह पर पहुँचने का यत्न करूँगा।’’
अगले दिन मेरे श्वसुर स्वयं दिल्ली आ पहुँचने। अपनी लड़की को अमृतसर न पहुँचते देख उन्होंने समझा था कि कदाचित् हम नाराज़ हैं। इसके अतिरिक्त वे दिल्ली में कुछ सामान भी खरीदना चाहते थे। परिणाम यह हुआ कि मेरी पत्नी दो तारीख को नहीं जा सकी। उसके पिताजी ने बताया कि वे विवाह में बहुत आडम्बर करने वाले नहीं है। यहाँ तक कि बारात भी नहीं चढ़ेंगी। सब लोग लड़की वालों के घर के समीप मन्दिर में एकत्र हो जायेंगे और वहाँ विवाह-संस्कार हो जायेगा और वहीं से हम लड़की को घर ले जायेंगे। अगले दिन कुछ सम्बन्धियों को लेकर हम लड़की के पिता के घर जायेंगे। वहाँ वे हमको भोजन देंगे और फिर विदा कर देंगे।
मैं विवाह के इस प्रबन्ध से अति सन्तुष्ट था। इसका अर्थ यह था कि हम छह तारीख को मध्याह्न तक अवकाश पा जायेंगे। अतः मेरा विचार हुआ कि माणिकलाल की बारात में सम्मिलित होऊँगा।
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