उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘वह तो अब जाऊँगी ही। आप बताइये, कब पहुँचेंगे?’’
‘‘मैं चार तारीख को प्रात: पहुँच जाऊँगा?’’
‘‘पिताजी ने एक पत्र आपके नाम भी भेजा है।’’
इतना कह श्रीमतीजी ने मुझे एक पत्र दिया। पत्र में मेरे श्वसुर की ओर से मुझको शीघ्रातिशीघ्र अमृतसर पहुँचने का निमंत्रण था।
उस दिन प्रथम मार्च थी। विवाह पाँच मार्च को था। विवाह के एक दिन पश्चात् अर्थात् छह मार्च को माणिकलाल का विवाह था।
मैंने मन में विचार किया कि माणिकलाल की बारात में भी सम्मिलित हो सकूँगा। यह विचार आते ही मुझको माणिकलाल का कहना स्मरण हो आया कि मैं अवश्य उसके विवाह पर आऊँगा। इस पर मुझको उसकी सब बातें स्मरण हो आईं और अपने को धर्मपुत्र युधिष्ठिर कहे जाने की बात की स्मरण कर मैं खिलखिलाकर हँस पड़ा।
मेरी पत्नी ने मेरे हँसने का कारण पूछा तो मैंने कहा, ‘‘एक सज्जन गाड़ी में मिले थे। उनसे परिचय हुआ और फिर हम मित्र बन गये। वे अपना विवाह कराने अमृतसर जा रहे थे। उन्होंने निमंत्रण देकर कहा कि मैं सपत्नीक उनकी बारात में सम्मिलित होऊँ। मैंने अपनी असमर्थता प्रकट की तो बोले कि वह जानते हैं कि मैं अवश्य उनके विवाह पर पहुँचूँगा। मैंने समझा कि ऐसे ही व्यावहारिक बात हो रही है। परन्तु तुमको वहाँ जाते देख और अपने जाने को भी निश्चित समझ मेरी हँसी निकाल गई है’’
‘‘कब है उसका विवाह?’’
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