उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
द्वितीय परिच्छेद
1
बम्बई जाते समय मैं घर पर कह गया था कि चार दिन तक लौट आऊँगा, परन्तु मुझको लौटने में दस दिन लग गये। मैं आया तो श्रीमतीजी रुष्ट हो रही थीं। एक तो व्यवसाय में हानि हुई थी। दूसरे जाने के समय मेरा स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं था और बम्बई में मैंने कोई पत्र नहीं लिखा था। वास्तव में, नित्य चल सकने की आशा में पत्र लिखना अनावश्यक समझ, लिख नहीं सका था। पत्नी के रुष्ट होने का कारण यह भी था कि उसके छोटे भाई नरेन्द्र के विवाह की तिथि निश्चत हो गई थी। और वह अपने ‘मायके’, जो अमृतसर में था, शीघ्रातिशीघ्र जाना चाहती थी।
मैंने पूछा, ‘‘कब है विवाह?’’
‘‘पाँच मार्च को।’’
‘‘पाँच मार्च को? झट मंगनी पट ब्याह?’’
‘‘बात यह है कि बातचीत चलते हुए तो कई मास हो गये थे। बीस फरवरी को उन्होंने अन्तिम निर्णय किया। इक्कीस को पिताजी का तार आया था। उन्होंने मुझको तुरन्त बुला भेजा है। यदि आप यहाँ होते तो मैं चली गई होती। माताजी के अभाव में मुझको ही तो सब प्रबन्ध करना है।’’
‘‘तो ठीक है। कल दोपहर एक बजे की गाड़ी से चली जाना। रात को नौ बजे तक पहुँच जाओगी।’’
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