उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
मैंने माणिकलाल को तैयार हो सीट पर बैठते देख कहा, ‘‘ऐसा प्रतीत होता है कि आप अपने इस विवाह से बहुत प्रसन्न है?’’
‘‘हाँ, परन्तु आपने किस प्रकार अनुमान लगाया हैं?’’
‘‘यही आपके मुझे कल और आज का भोजन खिलाने से।।’’
‘यह तो मैं इसलिए करता हूँ कि मुझे धन अनायास ही मिल जाता है। इस पर भी, वैद्यजी! मैं नोरा को पाकर अति प्रसन्न हूँ। ऐथेन्ज में वह अति प्रेममय स्वभाव वाली थी। उस समय इससे जो आनन्द और प्रसन्नता मुझे उपलब्ध हुई थी, वह अकथनीय है। आशा करता हूँ कि मैं उससे वे संस्कार जाग्रत करने में सफल हो जाऊँगा।’’
‘‘मेरी शुभ कामनाएँ आपके साथ हैं।’’
‘‘देखिये वैद्यजी! आपको अपना अमृतसर का पता दे रहा हूँ। आप कहीं आगे-पीछे पहुँच गये तो वहाँ पर पहुँच जाइयेगा।’’
‘‘आशा तो नहीं, इस पर भी पता लेने में कोई हानि नहीं है।’’
माणिकलाल ने मुझे एक छपा हुआ कार्ड दे दिया। फिर कहा, ‘‘मैं समझता हूँ कि आप अमृतसर अवश्य आयेंगे। देखिये, यदि आप आये तो सपत्नीक आइयेगा, जिससे नोरा और उसका परिचय भी हो जाय और फिर वे हमें खाने के लिए दिल्ली निमन्त्रण दे तो बहुत अच्छा हो।’’
‘‘हाँ, यदि हम आ सके तो हमें भी बहुत प्रसन्नता होगी।’’
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