उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘इस प्रकार मैं पहले तो देवराज की ओर से हस्तिनापुर में गुप्तचर का कार्य करने लगा, परन्तु मेरे वहाँ जाने के कुछ ही काल पश्चात् भीष्म ने मुझको अपना वैतनिक सेवक बना लिया। जब मैं हस्तिनापुर से वेतन लेने लगा तो मैंने देवराज से वेतन लेना बन्द कर दिया। पिताजी ने भी यही उचित समझा कि एक नौका में नाँव रखना चाहिए। इसके साथ ही मैंने वह दुर्घटना, जिसकी ओर देवराज ने संकेत किया था, आने से रोकने का यत्न आरम्भ कर दिया।
‘‘देवराज तो चाहते थे कि मैं अपनी कूटनीति से सत्यवती के परिवार में ऐसा द्वेष उत्पन्न करूँ कि उसके राज्य की ईंट-से-ईंट बज जाये। परन्तु जब मैं हस्तिनापुर का दिया वेतन लेने लग गया तो मैंने लढ़ाई और झगड़ा कराने के स्थान पर उनके परिवार में शान्ति स्थापित करने का यत्न कर दिया।’’
अब तक हम मथुरा पहुँच गये थे। बैरा चाय ले आया। हम दोनों ने चाय पी। मैंने पिछले पूर्ण दिन का खाना चाय का बिल देना चाहा, परन्तु माणिकालाल ने देने नहीं दिया। मैं चकित था कि यह आदमी ऐसा क्यों कर रहा है। मैं पिछले काल में युधिष्ठिर रहा हूँ तो क्या हुआ? परन्तु उसने कुछ गिन-गिनाकर बैरे को दे दिया और ऊपर एक रुपया टिप का दिया।
जब गाड़ी मथुरा से चल पड़ी तो हमने अपना सामान समेटना आरम्भ कर दिया। माणिकालाल के पास बहुत सामान था। इससे उसे समेटने में देर लग रही थी। मेरे पास तो केवल एक सूटकेस और एक बिस्तर ही था। सो मैं यह पाँच मिनट में बाँधकर तैयार हो गया। माणिकलाल ने सामान ठीक करने में पूरा घण्टा-भर लगा दिया।
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