उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
माणिकलाल ने एक बँगला किराये पर लिया हुआ था। इसमें बरातियों के ठहरने का प्रबन्ध किया जा चुका था। लगभग पचास बराती आने वाले थे। सबके लिए एक ही गाड़ी में सीटें रिज़र्व न हो सकी थीं। इस कारण माणिकलाल ने कई गाड़ियों से बारातियों के आने का प्रबन्ध किया था। इस पर भी फ्रन्टियर मेल से छह मार्च को प्रातः काल एक बड़ी संख्या में वे आने वाले थे। अभी तक चार-पाँच बाराती ही पधारे थे।
मैं बँगले में पहुँचा तो माणिकलाल, जो आये हुए बारातियों से बातचीत कर रहा था, मुझको देख प्रसन्नता से उबलता हुआ भागा हुआ मुझसे मिलने चला आया।
‘‘ओह, वैद्यजी! आप आ गये न? मैं जानता था कि आप अवश्य आयेंगे।’’
‘‘कैसे जान गये थे आप कि मुझको आवश्यकता कार्य से वहाँ आना पड़ेगा।’’
‘‘मुझको कुछ ऐसा प्रतीत हो रहा था कि आप विवाह के समय मेरे संरक्षक का भार अपने ऊपर ले लेंगे। मैं विचार करता था कि आपके आये बिना यह होगा कैसे? अब आप गये हैं तो आइये, मैं आपको सब-कुछ समझा देता हूँ।’’
‘‘परन्तु माणिकलालजी! आप आयु में मुझसे बड़े हैं, अनुभव और ज्ञान भी मुझसे अधिक रखते है। इसलिए मेरा आपका संरक्षक बनना अस्वाभाविक प्रतीत होता है।’’
‘‘देखिए वैद्यजी! वास्तव में कौन बड़ा है और कौन छोटा, यह इतने महत्व की बात नहीं, जितनी कि यह देखने में कि कौन बड़ा-छोटा दिखाई देता है। देखने वाले तो मुझको पच्चीस वर्ष का युवक ही मानते है और आप, यदि मैं गलत नहीं कहता, तो पचास-साठ वर्ष के भीतर की आयु के प्रतीत होते हैं। आप सुगमता से मेरे पिता बन सकते हैं।’’
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