ई-पुस्तकें >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
स्वतंत्रता के लिए इसलिए मैंने सुबह आप से बात की है।
उसी संबंध में एक मित्र ने और पूछा है। मैंने कहा कि हम सभी शास्त्रों से स्वतंत्र हो जाएं।
तो शायद उन्हें लगा होगा कि मैं शास्त्रों का विरोधी हूँ। शास्त्र तो इतने व्यर्थ हैं कि उनके विरोध करने की भी कोई जरूरत नहीं। विरोध करने से भी उनको बल मिलता है। विरोध भी हम उसका करते हैं, जिसमें कोई जीवन हो, जान हो। छायाओं का कौन विरोध करेगा प्रतिध्वनियों का कौन विरोध करेगा?
शास्त्रों का मैं विरोधी नहीं हूँ, क्योंकि अगर मैं विरोधी हो जाऊं तो मैं शास्त्रों का किसी न किसी रूप में प्रचारक हो गया। क्योंकि विरोध भी प्रचार है। और सच्चाई तो यह है कि आज तक दुनिया में हमेशा विरोध ही प्रचार सिद्ध हुआ है।
क्राइस्ट को अगर कुछ नासमझ यहूदियों ने न मारा होता, तो शायद क्रिश्चिनिटि कहीं भी न होती। वह विरोध प्रचार बन जाता है।
मै कोई शास्त्र का विरोधी नहीं हूँ। शास्त्र इतनी व्यर्थ चीजे हैं कि उनका विरोध मैं क्यों करूंगा। विरोध ही करना होगा, तो और किसी चीज का कर सकता हूँ। शास्त्र--बेजान, मुर्दा उनसे क्या विरोध करना है।
जो मैंने कहा, वह इसलिए नहीं कि मैं शास्त्र विरोधी हूँ, बल्कि इसलिए कि मैं सत्य का प्रेमी हूँ। और सत्य, शब्दों से न कभी मिला है और न मिल सकता है। वे शब्द चाहे वेद के हों, चाहे गीता के, चाहे बाइबिल के, चाहे मेरे, चाहे किसी और के--शब्दों से कभी कोई सत्य उपलब्ध नहीं हो सकता है। सत्य तो वहाँ उपलब्ध होता है, जहाँ चित्त निःशब्द हो जाता है। जहाँ चित्त में कोई शब्द नहीं रह जाते।
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