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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

तो सभी शास्त्र शब्द हैं। और शब्दों को अगर हम आग्रह से पकड़ेंगे तो हम निःशब्द कभी भी न हो सकेंगे, हम मौन कभी भी न हो सकेंगे। हमारे भीतर से सारे शब्दों की गूंज, अनुगूंज कभी समाप्त न हो सकेगी। गीता गूंजती ही रहेगी, वेद गूंजते ही रहेंगे, उपनिषद गूंजते ही रहेंगे। और ये जो प्रतिध्वनियां है हमारे चित्त में, ये कभी हमें उस शून्य को उपलब्ध न होने देगी, जहाँ सत्य का साक्षात हो सकता है।

शास्त्रों को पकड़ लेने वाला चित्त फोटोग्राफ की तरह है। कोई कैमरे से आपका चित्र उतार लेता है, तो भीतर जो फिल्म है वह पकड़ लेती है उस चित्र को। पकड़ने से ही व्यर्थ हो जाती है, फिर उसका कोई और उपयोग नहीं रह जाता।

दर्पण पर भी आपका चित्र बनता है, लेकिन दर्पण पकड़ता नहीं है। इसलिए आप हट जाते हैं, दर्पण फिर खाली और लोन हो जाता है। इसलिए दर्पण निरंतर उपयोगी बना रहता है। दर्पण निरंतर जीवित बना रहता है।

फोटोग्राफ एक दफे में खतम हो जाता है। और अगर एक ही फोटोग्राफ पर हम कई चित्र ले लें, तब तो फिर समझना ही मुश्किल हो जाता है कि वहाँ क्या है। हमारे चित्त ने बहुत से शास्त्रों को फोटोग्राफ की तरह पकड़ लिया है, इसलिए समझना मुश्किल हो गया है कि भीतर क्या है। सब पकड़ लिए गए हैं। ओर उनकी गूंज की वजह से भीतर जो छिपा है, उसका कोई अनुभव, उसकी कोई प्रतीति नहीं हो पाती है।

मैंने यह नहीं कहा कि आप शास्त्र न पढ़ें। मैंने यह नहीं कहा कि आप शास्त्र न समझें। मैंने यह कहा कि आप दर्पण की तरह हों। उनकी कोई रेखा, उनके कोई शब्द, उनकी कोई गूंज आपके ऊपर न छूट जाए। आप दर्पण की तरह, मिरर की तरह हमेशा खाली हो जाएं तो जीवन को जानने की क्षमता आपकी निरंतर कायम रहेगी। अन्यथा आप शब्दों में जकड़ जाएंगे और जीवन को जानने से वंचित रह जाएंगे।

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