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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

स्वतंत्रता नहीं है, क्रांति है।

क्रांति की बात ही अलग है। क्रांति का अर्थ है दूसरे से कोई प्रयोजन नहीं है। हम किसी के विरोध में स्वतंत्र नहीं हो रहे हैं। क्योंकि विरोध में हम स्वतंत्र होंगे, तो वह स्वच्छंदता हो जाएगी। हम दूसरे से मुक्त हो रहे हैं - न उससे हमें विरोध है, न हमें उसका अनुगमन है। न हम उसके शत्रु हैं, न हम उसके मित्र हैं--हम उससे मुक्त हो रहे हैं। और यह मुक्ति, पर से मुक्ति, जिस ऊर्जा को जन्म देती है, जिस डायमेंशन को, जिस दिशा को खोल देती है, उसका नाम स्वतंत्रता है।

उस पर हम इधर तीन दिनों में और अनेक-अनेक कोणों से उसे समझने की कोशिश करेंगे।

लेकिन एक बात खयाल में ले लें, स्वतत्रता किसी का विरोध नहीं है। स्वतंत्रता अपनी उपलब्धि है, किसी का विरोध नहीं है। स्वतंत्रता कोई प्रतिक्रिया नहीं, कोई रिएक्शन नहीं है, बल्कि स्वयं के जीवन का आविर्भाव है।

आप मुझसे कहें कि मैं एक गीत गाऊं और मैं गीत गाऊं, तो मैं आपसे बंधा हूँ। आप मुझसे कहें एक गीत गाएं, इसलिए मैं न गाऊं तो भी मैं आपसे बंधा हूँ। लेकिन गीत आपकी बिना फिक्र किए--आपके कहने की या न कहने की--मेरे प्राणों से निकले और गूंज उठे तो मैं स्वतंत्र हूँ।

स्वतंत्रता मेरे भीतर से आने वाला तत्व है, आप से आने वाला नहीं। और स्वतंत्रता में ही हम आत्मा को जानने में समर्थ हो पाते हैं। क्योंकि स्वतंत्रता सब बाहर के आरोपण, बाहर के आवरण, बाहर की जबर्दस्तियां, बाहर की प्रतिक्रियाएं--इन सबके गिर जाने पर उपलब्ध होती है। और उस स्वतंत्रता की भूमि में ही स्वयं का, निज का, क्रमशः दर्शन उपलब्ध होता है।

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