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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

कुछ भी करने का उपाय नहीं था। द्वार बंद, बाहर ताला लगा हुआ है, संतरी अदर घुस आए हैं, नौकर भीतर खड़े हैं, घर भर में खोजबीन की जा रही है--आप क्या करते?

उस लड़के के पास करने को कुछ भी नहीं था। न करने के कारण वह बिलकुल शांत हो गया। उस लड़के के पास सोचने को कुछ नहीं था। सोचने की कोई जगह नहीं थी, गुंजाइश नहीं थी। सो जाने का मौका नहीं था, क्योंकि खतरा बहुत बड़ा था। जिंदगी मुश्किल में थी। वह एकदम अलर्ट हो गया। ऐसी अलर्टनेस, ऐसी सचेतता, ऐसी सावधानी उसने जीवन में कभी देखी नहीं थी। ऐसे खतरे को ही नहीं देखा था। और उस सावधानी में कुछ होना शुरू हुआ। उस सचेतता के कारण कुछ होना शुरू हुआ--जो वह नहीं कर रहा था, लेकिन हुआ।

उसने कुछ, अपने नाखून से दरवाजा खरोचा। नौकरानी पास से निकलती थी। उसने सोचा शायद चूहा या कोई बिल्ली कपडों की अलमारी में अंदर है। उसने ताला खोला, मोमबत्ती लेकर भीतर झांका। उस युवक ने मोमबत्ती बुझा दी। बुझाई, यह कहना केवल भाषा की बात है। मोमबत्ती बुझा दी गई, क्योंकि युवक ने सोचा नहीं था कि मैं मोमबत्ती बुझा दूं। मोमबत्ती दिखाई पड़ी, युवक शांत खड़ा था, सचेत, मोमबत्ती बुझा दी, नौकरानी को धक्का दिया, अंधेरा था, भागा।

नौकर उसके पीछे भागे। दीवाल से बाहर निकला। जितनी ताकत से भाग सकता था, भाग रहा था। भाग रहा था कहना गलत है, क्योंकि भागने का कोई उपक्रम, कोई चेष्टा, कोई एफर्ट वह नहीं कर रहा था। बस, पा रहा था कि मैं भाग रहा हूँ। और फिर पीछे लोग लगे थे। वह एक कुएं के पास पहुँचा, उसने एक पत्थर को उठाकर कुएं में पटका। नौकरों ने कुएं को घेर लिया। वे समझे कि चोर कुए में कूद गया है। वह एक दरख्त के पीछे खड़ा था, फिर आहिस्ता से अपने घर पहुँचा।

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