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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

जाकर देखा, उसका पिता कंबल ओढ़े सो रहा था। उसने कंबल झटके से खोला और कहा कि आप यहाँ सो रहे हैं, मुझे मुश्किल में फंसाकर। उसने कहा, अब बात मत करो। तुम आ गए, बात खतम हो गई। कैसे आए--तुम खुद ही सोच लेना। कैसे आए तुम वापस? उसने कहा मुझे पता नहीं कि मैं कैसे आया हूँ। लेकिन कुछ बातें घटीं। मैंने जिंदगी में ऐसी अलर्टनेस, ऐसी ताजगी, ऐसा होश कभी देखा नहीं था। और आउट आफ दैट अलर्टनेस, उस सचेतता के भीतर से, फिर कुछ शुरू हुआ, जिसको मैं नहीं कह सकता कि मैंने किया।

मैं आ गया हूँ।

उस बूढ़े ने कहा, अब दोबारा भीतर जाने का इरादा है? उस युवक ने कहा, उस सचेतता में, उस अवेयरनेस में जिस आनंद का अनुभव हुआ है, अब मैं चाहता हूँ, मैं भी परमात्मा का चोर हो जाऊं। अब आदमियों की संपदा में मुझे भी कोई रस दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि उस सचेतता में मैंने अपने भीतर जो संपदा देखी है, वह इस संसार में कहीं भी नहीं है।

तो मैं परमात्मा के चोर होना आपको सिखाना चाहता हूँ। लेकिन उसके पहले इन तीन सूत्रों पर इन तीन दिनों में अगर आप सहयोग देंगे, तो इसमें कोई बहुत आश्वर्य नहीं है कि जाते वक्त आप अपने सामान में परमात्मा की भी थोडी सी संपदा ले जाते हुए अपने आपको अनुभव करें। वह संपत्ति सब जगह मौजूद है। लेकिन हिम्मतवर चोर आता ही नहीं कि उस संपत्ति को चुराए और अपने घर ले जाए।

परमात्मा करे, आप भी एक मास्टर थीफ हो सकें, एक कुशल चोर हो सकें। उस बड़ी संपदा को चुराने में उस चोरी के सिखाने का ही राज तीन दिनों में आपसे मैं कहूँगा। और अगर आपका सहयोग रहा तो यह बात हो सकती है।

आज के लिए तो इतना बस। क्योंकि रात बहुत हो गई। और जिनको चोरी की तैयारी करनी है, उन्हें अपनी-अपनी जगह चले जाना चाहिए।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना है, उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।

अंत में यही प्रार्थना करता हूँ, प्रभु करे, वह आशा और वह सपना पूरा हो सके, जिसके लिए हम सबके प्राण लालायित हैं। वह हो सकता है, सिर्फ आपके सहयोग की जरूरत है।

अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूँ, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

साधना-शिविर
माथेरान, दिनांक 18-10-67 रात्रि

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