ई-पुस्तकें >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
दो पुरोहित अपनी शिक्षा के लिए एक आश्रम में भर्ती हुए थे। उन दोनों को ही सिगरेट पीने की आदत थी। एक घंटे के लिए उन्हें आश्रम के बगीचे में घूमने का समय मिलता था। उसी समय वे पी सकते थे। लेकिन वह समय भी ईश्वर-चिंतन करने के लिए मिलता था। तो उन्होंने सोचा गुरु से पूछ लेना उचित है। वे दोनों अपने गुरु के पास पूछने गए।
पहला व्यक्ति जब लौटा पूछकर तो उसने देखा कि दूसरा तो उससे पहले ही बगीचे में वापस लौट आया है और एक दरख्त के नीचे बैठकर आराम से सिगरेट पी रहा है। उसे बड़ी हैरानी हुई। उसे तो गुरु ने इनकार कर दिया था। क्या उसके साथी को उन्होंने स्वीकार कर दिया यह कैसे संभव है कि मुझे मना किया और मेरे साथी को हाँ भरी।
उसने क्रोध में आकर अपने मित्र को पूछा, तुम सिगरेट पी रहे हो। मुझे तो मना कर दिया है गुरु ने। उस साथी ने कहा, तुमने पूछा क्या था उस व्यक्ति ने कहा, सीधी सी बात थी। मैंने पूछा था, क्या मैं ईश्वर-चिंतन करते समय सिगरेट पी सकता हूँ। उन्होंने एकदम कहा, नहीं, बिलकुल नहीं। तुमने क्या पूछा था, वह दूसरा मित्र हंसा। उसने कहा, मैंने पूछा था, क्या मैं सिगरेट पीते वक्त ईश्वर-चिंतन कर सकता हूँ उन्होंने कहा, हाँ, बिलकुल। ये दोनों बातें एक ही अर्थ रखती हैं, लेकिन एक ही परिणाम नहीं निकला। दोनों से बिलकुल दूसरा परिणाम निकला। ईश्वर-चिंतन करते समय कौन आज्ञा देगा कि सिगरेट पीओ। लेकिन सिगरेट पीते वक्त अगर ईश्वर-चितन करते हो तो अच्छा ही है, इसमें बुरा क्या है। वैसे बात दोनों एक ही है। लेकिन इतने ही फर्क से जमीन-आसमान का फर्क पैदा हो जाता है।
तो उन सारे प्रश्नों को तो मैं छोड़ दूंगा, जिनमें अपने शब्दों को, भावों को विचारों को समझने की कोशिश नहीं की है--हेर-फेर कर ली है, बदली कर दी है, अपने मन से कुछ जोड़ लिया या कुछ घटा दिया है। उन सब पर विचार करने का तो समय नहीं है। इतना ही निवेदन करूंगा उन सबके संबंध में कि जो मैंने कहा है, उसे फिर गौर से सोचें, उसका फिर से निरीक्षण करें, समझें। तो जो मुझसे पूछा है, उसके उत्तर आपको अपने से ही मिल जाएंगे।
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