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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

बस एक कदम

शिविर की इस अंतिम रात्रि में थोड़े से प्रश्नों पर और हम विचार कर सकेंगे। कुछ प्रश्न तो ऐसे हैं, जो मेरे शब्दों को, विचारों को ठीक से न सुन पाने, न समझ पाने की वजह से पैदा हो गए हैं। एक शब्द भी यहाँ से वहाँ कर लें तो बहुत अंतर पैदा हो जाता है। उन प्रश्नों के तो उत्तर मैं नहीं दे पाऊंगा। निवेदन करूंगा कि जो मैंने कहा है, उसे फिर एक बार सोचें। उसे समझने की कोशिश करें। जरा सा भेद आप कर लेते हैं, कुछ अपनी तरफ से जोड़ लेते हैं या कुछ मैंने जो कहा उसे छोड़ देते हैं, तो बहुत सी भ्रांतियां, दूसरे अर्थ पैदा हो जाते हैं। और जरा से फर्क से बहुत बड़ा फर्क पैदा हो जाता है।

एक राजधानी में उस देश के धर्मगुरुओं की एक सभा हो रही थी। सैकड़ों धर्मगुरु देश के कोने-कोने से इकट्ठे हुए थे। उस नगर ने उनके स्वागत का सब इंतजाम किया। सभा का जब उद्घाटन होने को था तो मंच पर से परदा उठाया गया। पांच छोटे-छोटे बच्चों के गले में हैलो, इसके पांच अक्षर--एच, ई, एल, एल, ओ--ये पांच बच्चों के गलों में एक-एक अक्षर लटकाकर एक के बाद एक बच्चा बाहर आया स्वागत के लिए।

चार बच्चे आकर खड़े हो गए। पांचवां छोटा बच्चा हैरान हुआ, वह भूल गया, कहाँ खड़ा होना है। वह पीछे न खड़ा होकर आगे पंक्ति में खड़ा हो गया। हैलो की जगह ओ हेल बन गया। वह, स्वागत की जगह वहाँ नरक। उतने से एक अक्षर के यहाँ से वहाँ होने पर कहाँ स्वागत का स्वर्ग था, कहाँ नरक उपस्थित हो गया।

एक नास्तिक ने अपने घर पर लिख छोड़ा था, गाड इज नो ह्वेयर। एक छोटा सा बच्चा पड़ोस का उसे पढ़ रहा था, नया-नया पढ़ने वाला था। उसने पढ़ा गाड इज नाउ हिअर। वह नास्तिक सुनकर हैरान हो गया। उसने लिखा था गाड इज नो ह्वेअर, ईश्वर कहीं भी नहीं है। और बच्चे ने पढ़ा, गाड इज नाउ हिअर, ईश्वर यहीं है--यहीं और अभी।

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