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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

एक आदमी एक घर में बहुत सा गोबर और खाद लाकर ढेर इकटठा कर लें, तो बदबू फैलनी शुरू हो जाएगी। गांव के लोगों का उस रास्ते से निकलना मुश्किल हो जाएगा। उस आदमी का भी घर में रहना मुश्किल हो जाएगा। लेकिन वही आदमी उस खाद को अपनी जमीन पर फैला दे, घर के आगे और बीज डाल दे फूलों के, थोड़े दिनों में गांव के लोग उस रास्ते पर आने को आतुर हो जाएंगे। वहाँ फूल खिल गए हैं, उनमें सुगंध व्याप्त हो गई है।

वह सुगंध कहाँ से आती है? वह सुगंध उस खाद की दुर्गंध का ही रूपांतरण है, वह उसका ही ट्रांसफार्मेशन है। वही खाद जो दुर्गंध दे रही थी, फूलों से पार होकर सुगंध बन गई है।

लेकिन खाद इकट्ठी कर लें तो प्राण जीना मुश्किल हो जाएंगे। और खाद को बगिया में डाल लें, खाद को ही, तो फूल खिल जाएंगे वहाँ। वहाँ जीवन स्वर्ग हो जाएगा।

हमारे चित्त में भी अभी हम खाद को इकट्ठा किए हुए बैठे हैं इसलिए हम परेशान हैं। उस खाद को हमने चित्त की बगिया में सहयोगी नहीं बनाया है, और हमने बीज नहीं बोए हैं जो सुगंध ला सके। इसलिए हम परेशान हैं--सेक्स से परेशान हैं, क्रोध से परेशान हैं, ईर्ष्या से परेशान हैं--हर चीज से परेशान ही परेशान हैं। और इन सबसे लड़ रहे हैं और इस लड़ने में हम पूरे जीवन को दो कौड़ी का कर लेंगे। आखिर में हम पाएंगे हम एक हारे हुए सर्वहारा।

जा रहे हैं जमीन से, कुछ भी लेकर नहीं। क्योंकि हम खाद को ही इकट्ठा करने और खाद से ही लड़ने में लगे रहे हैं, हमने बगिया तो बनाई ही नहीं।

बगिया बन सकती है मनुष्य के जीवन की। लेकिन जो तथ्य है उन सबको देखना, जानना, पहचानना और उनके रूपांतरण की कीमिया, केमिस्ट्री खोजनी है।

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