ई-पुस्तकें >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
प्रेम का जीवन ही क्रिएटिव जीवन है। प्रेम का जीवन ही सृजनात्मक जीवन है। प्रेम का हाथ जहाँ भी छू देता है, वहाँ क्रांति हो जाती है, वहाँ मिट्टी सोना हो जाती है। प्रेम का हाथ जहाँ स्पर्श देता है, वहाँ अमृत की वर्षा शुरू हो जाती है।
लेकिन यह प्रेम आता कहाँ से है, कहाँ से यह पैदा होता है, कहाँ यह जन्म पाता है? मेरी दृष्टि में जैसे एक बीज होता है, बीज के ऊपर एक खोल होती है, सेल होती है, उसके ऊपर ढांके रखती है। भीतर बीज छिपा होता है, ऊपर सेल होती है, खोल होती है। खोल बीज की दुश्मन नहीं है, मित्र है। अगर खोल न हो तो बीज कभी का मर जाएगा, उसकी रक्षा न हो सकेगी। लेकिन हम जमीन में डालते हैं बीज को, खोल तो टूटकर नष्ट हो जाती है, बीज अंकुर बन जाता है। बीज बाहर निकल आता है।
तो खोल रक्षा करती थी बीज का लेकिन अगर खोल रक्षा ही करती चली जाए और जब बीज को फूटने का मौका आए तब इनकार कर दे कि मैं टूटने को राजी नहीं हूँ, मैं तो तुम्हारी रक्षक हूँ। मैं नष्ट होने को राजी नहीं हूँ। तो जो रक्षक था वही भक्षक हो जाएगा। फिर खोल बीज का प्राण ले लेगी, फिर बीज में अंकुर नहीं पैदा हो सकेगा। खोल रक्षा करती है एक सीमा तक, और एक सीमा के बाद फिर टूट जाती है ताकि बीज में अंकुर हो सके।
मनुष्य के भीतर जो भी हमें वृत्तियां दिखाई पड़ती हैं वे खोल हैं, उनके भीतर बीज छिपे हुए हैं बहुत अदभुत। सेक्स खोल है। और अगर ठीक से उसे हम समझें तो एक दिन खोल तो विलीन हो जाती है और प्रेम का अंकुर प्रगट हो जाता है। क्रोध खोल है। अगर हम क्रोध को ठीक से समझें तो क्रोध तो विलीन हो जाता है, दया-क्षमा जन्म ले लेती है। लेकिन बड़ी अंडरस्टेंडिंग की, बड़ी समझ की जरूरत है।
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