ई-पुस्तकें >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
और तीसरा सूत्र, अंतिम और वह है सचेत होकर तीन दिन जीने की।
सचेत होकर कभी किसी बिल्ली को चूहा पकड़ते देखा होगा। शायद खयाल न किया हो, क्योंकि अगर हम जीवन के चारों तरफ खयाल कर लें तो छोटी-छोटी बातों में जीवन के सारे संदेश मौजूद हैं। लेकिन बिल्ली को कौन गुरु बनाना चाहेगा न तो बिल्ली भगवां वस्त्र पहनती है, न टीका लगाती है, न त्याग करती है। न बिल्ली कोई तीर्थंकर है, न कोई अवतार है। बिल्ली से कौन सीखने जाएगा?
लेकिन कभी बिल्ली को देखें--चूहे को पकड़ने के लिए कितनी तत्परता से बैठी है, कितनी सचेत। एक पत्ता हिल जाएगा, तो बिल्ली अपने पूरे प्राण-पण से कूदने को मौजूद है। एक चूहे की जरा सी खड़खड़ाहट होगी, किसी चूहे के बिल में थोड़ी सी आवाज होगी, किसी को पता नहीं चलेगा, लेकिन बिल्ली--बिल्ली सचेत है और जागी हुई है।
बिल्ली की भांति सचेत होने का जो आदमी अपने चित्त की तैयारी कर लेता है, उस आदमी से सत्य बचकर नहीं निकल सकता। बिल्ली से चूहा बचकर निकल भी जाए, लेकिन सचेत मनुष्य से सत्य बचकर नहीं निकल सकता। इतनी सचेतना चाहिए।
लेकिन हम तो सोए-सोए जीते हैं। रास्ते पर निकल जाते हैं--न तो हमें वृक्ष दिखाई पड़ते हैं, न उन पर बैठे हुए पक्षी हमें सुनाई पड़ते हैं, न आकाश में उगा हुआ चांद हमें दिखाई पड़ता है। हमें कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। हम तो जैसे सोए हुए चले जा रहे हैं। कई बार अनुभव हुआ होगा--किसी किताब का एक पन्ना पढ़ते हैं, बाद में पता चलता है कि मुझे तो जैसे, मैंने कुछ भी नहीं पढ़ा, कुछ खयाल नहीं आता। लेकिन आप पढ़ तो गए, सोए-सोए पढ़ गए होंगे।
कभी खयाल आता है, कोई आदमी कोई बात करता है और चूक जाती है--बाद में हमें खयाल आता है, सुनी तो थी। लेकिन कुछ खयाल नहीं पड़ता, सोए-सोए सुनी होगी। केवल चौबीस घंटे में मुश्किल से कोई क्षण होता होगा, जब हम जागकर जिंदगी को थोड़ा-बहुत अनुभव करते हों, अन्यथा हम सोए-सोए चलते हैं।
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