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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

एक शिक्षक था, युवकों को दरख्तों पर चढ़ना सिखाता था। एक युवक को सिखा रहा था। एक राजकुमार सीखने आया हुआ था। राजकुमार चढ़ गया था ऊपर की चोटी तक, वृक्ष की ऊपर की शाखाओं तक। फिर उतर रहा था, वह बूढ़ा चुपचाप दरख्त के नीचे बैठा हुआ देख रहा था। कोई दस फीट नीचे से रह गया होगा युवक, तब वह बूढ़ा खड़ा हुआ और चिल्लाया, सावधान। बेटे सावधान होकर उतरना, होश से उतरना।

वह युवक बहुत हैरान हुआ। उसने सोचा, या तो यह बूढ़ा पागल है। जब मैं सौ फीट ऊपर था और जहाँ से गिरता तो जीवन के बचने की संभावना न थी--जब मैं बिलकुल ऊपर की चोटी पर था, तब तो यह कुछ भी नहीं बोला, चुपचाप आँख बंद किए, वृक्ष के नीचे बैठा रहा। और अब। अब जबकि मैं नीचे ही पहुंच गया हूँ, अब कोई खतरा नहीं है तो पागल चिल्ला रहा है, सावधान। सावधान।

नीचे उतरकर उसने कहा कि मैं हैरान हूँ। जब मैं ऊपर था, तब तो आपने कुछ भी नहीं कहा--जब डेंजर था, खतरा था और जब मैं नीचे आ गया, जहाँ कोई खतरा न था उस बूढ़े ने कहा, मेरे जीवनभर का अनुभव यह है कि जहाँ कोई खतरा नहीं होता, वहीं आदमी सो जाता है। और सोते ही खतरा शुरू हो जाता है। ऊपर कोई खतरा न था--क्योंकि खतरा था और उसकी वजह से तुम जागे हुए थे, सचेत थे, तुम गिर नहीं सकते थे। मैंने आज तक ऊपर की चोटी से किसी को गिरते नहीं देखा--कितने लोगों को मैं सिखा चुका। जब भी कोई गिरता है तो दस-पंद्रह फीट नीचे उतरने में या चढ़ने में गिरता है, क्योंकि वहाँ वह निश्चिंत हो जाता है। निश्चिंत होते ही सो जाता है। सोते ही खतरा मौजूद हो जाता है। जहाँ खतरा मौजूद है, वहाँ खतरा मौजूद नहीं होता, क्योंकि वह सचेत होता है। जहाँ खतरा नहीं है, वहाँ खतरा मौजूद हो जाता है, क्योंकि वह सो जाता है।

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