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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

तो दूसरा सूत्र इन तीन दिनों के लिए--व्यस्तता न दिखाएं यहाँ। कोई फिक्र नहीं अगर मेरी एक चर्चा में न आ पाएं, तो कोई हर्जा नहीं हुआ जाने वाला। कोई फिक्र नहीं, अगर ध्यान को वक्त पर न पहुंच पाएं, कोई हर्जा नहीं हुआ जाने वाला। लेकिन इतनी शांति से जिएं इन तीन दिनो में कि आप कोई काम में नहीं लगे हैं--मौज में, एक आनंद में यहाँ हैं। यहाँ कोई साधना करने आए हैं--तो साधना की हमारी धारणा ही कुछ अजीब है। उसमें तो जो जितना बड़ा साधक है, उतना ही तनकर और चुस्त बैठा रहता है। उतना ही तनाव से भरा रहता है।

ऐसी साधना यहाँ नहीं है। मैं तो साधना ही इसको कहता हूँ कि आप सब तरह से उपराम को, विश्रांति को--एकदम चित्त के तल पर सब तरह के काम से छुटकारा पा जाएं।

तीन दिन इस तरह का, इस तरफ ध्यान देने का आपसे निवेदन है। और जैसे ही आप थोड़े से विश्राम में रहना जान पाएंगे, आप हैरान हो जाएंगे। यहाँ इतने दरख्त हैं, इतने पक्षी बोलते हैं, चुपचाप उनके पास दरख्तों के पास जाकर बैठ जाएं, लेट जाएं--कुछ न करें।

तीन दिनों में ज्यादा समय कुछ न करें। और देखें कि उस न-करने से कुछ हो सकता है क्या - अब तक जिन्होंने भी जीवन की गइराइयां जानी हैं, वे वे ही लोग हैं, जिन्होंने किन्हीं न-करने के क्षणों में परमात्मा से संबंध जोड़ लिया है।

लाओत्से कहा करता था, कुछ करना हो तो संसार की तरफ जाओ, कुछ न करना हो तो परमात्मा की तरफ।

मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि आप अपनी दुकानें बंद कर देंगे, नौकरियां छोड़ देंगे, अपने काम-धंधे बंद कर देंगे, वह मैं नहीं कह रहा हूँ। मैं तो सिर्फ इतना निवेदन कर रहा हूँ, इन तीन दिनों में आप इस एटीट्यूड में, इस दृष्टि में जीने का थोड़ा प्रयोग करें। फिर आप पाएंगे कि बिलकुल चित्त के तल पर बिना काम रहकर भी, बाहर के तल पर काम किया जा सकता है। और तब काम योग बन जाता है। भीतर अकर्म हो, भीतर चित्त पर कोई भी कर्म की भाग-दौड न हो, और बाहर जीवन पूरा सक्रिय हो तो जीवन योग हो जाता है। और अकर्म हो भीतर तो कर्म बाहर अपने आप कुशल हो जाता है। दूसरा सूत्र।

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