ई-पुस्तकें >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
|
5 पाठकों को प्रिय 434 पाठक हैं |
माथेराम में दिये गये प्रवचन
आप अपने तीस साल लौटकर देखें, आप भीतर पाएंगे, आप वही के वही आदमी हैं। पूरी जिंदगी आदमी करीब-करीब वही का वही बना रहता है। ऊपर थोड़े बहुत फर्क हो जाते हैं, लेकिन भीतर कोई फर्क नहीं होता है। क्योंकि भीतर हम कभी पहुँचते नहीं, फर्क होगा कैसे, जड़ों तक हम कभी जाते नहीं, तो फर्क होगा कैसे?
यह, यह जो जड़ तक पहुँचने का सूत्र है, वह है वृत्तियों का निरीक्षण, उनका पीछा, उनका अनुगमन। चाहे तो इसे ही मेडीटेशन कहें, चाहे तो इसे ही ध्यान कहें। चाहे इसे ही कुछ और नाम दें। लेकिन एक चीज को पकड़कर भीतर प्रवेश करना है। किसी चीज के सहारे ही यह प्रवेश हो सकेगा।
तो हर आदमी का अपना कोई चीफ कैरेक्टर होता है। हर आदमी की कोई खास बात होती है--क्रोध है, घृणा है, द्वेष है, ईर्ष्या है, अहंकार है--कोई भी एक। हर आदमी की एक केंद्रीय वृत्ति होती है, जिसके इर्द-गिर्द सारी वृत्तियां घूमती रहती हैं। तो अपने चीफ कैरेक्टर को, अपनी प्रधान वृत्ति को खोज ले और फिर उसका अनुसरण करे, फिर उसके पीछे उतरना शुरू करे। फिर उसके जितने गहराई तक जा सके, उसके साथ जाने की कोशिश करे।
और चलने दें यह कोशिश उस दिन तक, जिस दिन तक आप वहाँ न पहुँच जाएं, जिसके आगे फिर कोई और गति नहीं है। जहाँ पहुँचकर अंतिम बिंदु आ गया विराम का, जड़ें आ गईं। फिर किसी से आपको पूछना नहीं पड़ेगा कि मैं क्या करूं इस फूल को अलग करने के लिए। इस ईर्ष्या को अलग करने के लिए मैं क्या करूं। इस क्रोध को अलग करने के लिए मैं क्या करूं। यह पूछना नहीं पड़ेगा। आप हंसेगे और बात खतम हो जाएगी। वह एक हल्का सा धक्का, सारी बात बदल जाती है। लेकिन उस हल्के से धक्के पर पहुँचने के पहले चित्त का पीछा करना पड़ता है। और यह पीछा एक अर्थ में बहुत आरडुअस, बहुत कठिन भी है।
|