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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

क्योंकि बहुत डर लगता है इस पीछा करने में। क्योंकि हमने अपनी-अपनी एक शकल बना रखी है। इस पीछा करने में वह शकल टूटती है। जितना हम पीछा करते हैं, उतनी ही शकल टूटती है।

एक आदमी कहता है कि मैं ब्रह्मचारी हूँ। अब अगर वह अपने सेक्स का पीछा करेगा, तो यह कल्पना उसको छोड़ देनी पडेगी कि मैं ब्रह्मचारी हूँ। जैसे वह अपनी वासना के पीछे, काम के पीछे, सेक्स के पीछे यात्रा करेगा, वैसे-वैसे उसे पता चलेगा कि मैं कितना सेक्सुअल हूँ, मैं कितना कामवासना से भरा हुआ हूँ। कहाँ है ब्रह्मचर्य। बल्कि जैसे-जैसे भीतर उतरेगा, उसको पता चलेगा, जिसको मैं ब्रह्मचर्य कहता था, वह सब सेक्सुअलिटि थी। एक स्त्री को देखकर मैं आँख बंद कर लेता था, वह आँख बंद कर लेना ब्रह्मचर्य नहीं था, आँख बंद करना सेक्स था। नहीं तो आँख बंद करने की कोई जरूरत न थी।

एक साध्वी से मैं मिलता था। समुद्र की हवाएं चलती थीं। अब समुद्र की हवाओं को कुछ भी पता नहीं कि एक स्त्री बैठी है, एक पुरुष बैठा है। समुद्र की हवाओं ने मेरे चादर को उड़ाकर उन साध्वी को स्पर्श करा दिया। वे एकदम बेचैन होकर घबड़ाई। पुरुष का वस्त्र नहीं छूना चाहिए। वह ब्रह्मचारिणी थी। अब समुद्र की निर्दोष हवाएं, उन्हें कोई पता नहीं कि कोई साध्वी बैठी है, चादर उड़ाकर इसको स्पर्श नहीं कराना चाहिए। वे बहुत घबड़ाईं। मैंने उनसे पूछा, आप घबड़ा गई हैं उन्होंने कहा, हाँ, पुरुष का वस्त्र हमें नहीं छूना चाहिए। मैंने उनसे कहा, वस्त्र भी पुरुष और स्त्री हो सकते हैं, वस्त्र भी। यह कैसा ब्रह्मचर्य है, जो वस्त्रों में भी सेक्स को देखता है। क्योंकि वस्त्र अगर स्त्री-पुरुष है तो वस्त्रों में सेक्स का दर्शन शुरू हो गया। वस्त्रों ने भी लैंगिक रूप ले लिया। वस्त्रों में भी सेक्स का फर्क हो गया। यह कैसा ब्रह्मचर्य है जो वस्त्रों में भी स्त्री और पुरुष को देखता है।

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