ई-पुस्तकें >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
अब इन दो को काटेंगे और चार डंडियां निकल आएंगी। और हम यही कर रहे हैं। ऊपर से फूलों को काट रहे हैं फूल बढ़ते चले जाते हैं। जितने फूल बढ़ते हैं, हमारी काटने की बेचैनी बढ़ती चली जाती है। कल एक बार क्रोध किया था, उसको काट दिया ऊपर से। आज दो बार हो गया है, उसको काट दिया। परसों चार बार हो गया। रोज बढ़ता जाता है रोग।
क्योंकि जिसको हम काटना समझते हैं, वह कलम करना है। वह सहायता पहुँचानी है वृक्ष को। जो माली है, वह जानता है कि वृक्ष को सहायता पहुँचानी हो, एक डंडी काट दो। जहाँ से डंडी काटी गई, वहाँ से दो डंडियां पैदा हो जाती हैं। हम कलम कर रहे हैं अपने मन की।
लेकिन जो आदमी पीछे जाएगा और जड़ों तक पहुँच जाएगा--अगर उसे लगता है कि जो फूल आया है ऊपर, वह वाछनीय नहीं है। तो एक छोटा सा हल्का धक्का और जड़ें खतम हो जाती हैं और फिर फूल कभी भी नहीं आते।
चित्त को बदलना हो--ऊपर से जो कलम चलती रहती है नैतिक आदमी की, उससे कभी कोई आदमी नहीं बदलता। नैतिक आदमी ऊपर से कलम करता रहता है। और इसलिए मुसीबत में पड़ता चला जाता है। धार्मिक आदमी ऊपर से कलम नहीं करता--अपरूट करता है, जड़ों को उखाड़कर फेंक देता है। यह काम एक ही बार में हो जाता है और कलम करने का काम जिंदगीभर चलता है। यह काम एक ही बार में हो जाता है--जड़ उखड़ जाती है, बात खतम हो जाती है।
लेकिन अगर हम ऊपर ही ऊपर सारा उपद्रव करते रहे तो हम परेशान भी बहुत हो जाते हैं--मामले बदलते भी नहीं, आदमी वही का वही बना रहता है। आप खोजें अपने भीतर आप सालभर पहले जो आदमी थे, वही आदमी आप आज भी हैं सालभर में आपने कितनी कलम नहीं की होगी? न मालूम क्या-क्या छोड़ा होगा--यह किया होगा, वह किया होगा।
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