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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

हजारों वर्षों से यह भ्रम है कि एकाग्रता ही ध्यान है। और यह भ्रांति इतनी मंहगी पड़ी है जितनी मंहगी कोई भ्रांति नहीं पड़ी है। एकाग्रता का अर्थ है चित्त को किसी एक चीज पर रोकना, ठहराना। दीप की ज्योति पर ठहरा लें, राम के नाम पर ठहरा लें, किसी प्रतिमा पर ठहरा लें, किसी सिंबल पर ठहरा लें, किसी एक चीज पर, एक विचार पर, एक धारणा पर--चित्त को सब भांति रोक लेने का प्रयास है।

चित्त को जब इस भांति रोक लेने की तीव्र चेष्टा की जाती है, तो क्या होता है, चित्त को जब बहुत जोर से कांसनट्रेट करने की, एकाग्र करने का श्रम किया जाता है, तो क्या होता है? होता है यह कि जब तीव्रता से चित्त को एक जगह जबर्दस्ती हम रोकने की कोशिश करते हैं, चित्त वहाँ से भागने की कोशिश करता है। चित्त का स्वभाव गति है, डायनामिक है। माइंड जो है, चित्त जो है, वह डायनामिक है, गत्यात्मक है--जाना चाहता है, गति करना चाहता है, ठहरना नहीं चाहता।

समझ लें, गंगा को हमें ठहराना हो। गंगा को ठहराना हो तो क्या करना पड़े- गंगा जीवन धारा है--बही जा रही है पहाड़ों से समुद्र की तरफ। चित्त भी बहा जा रहा है। चित्त की धारा, नदी भी, सरिता भी बही जा रही है अनंत की तरफ। हम उसे रोक लेना चाहते हैं, ठहरा लेना चाहते हैं। तो एक ही रास्ता है। वह रास्ता यह है कि गंगा का पानी जमकर बर्फ हो जाए तो गंगा ठहर जाएगी वहीं के वहीं, जहाँ है। तो वह जो डायनामिक गंगा है, वह डार्मेट हो जाए, वह जो चलती गंगा है, वह ठहर जाए, बर्फ हो जाए, तो जहाँ के तहाँ ठहरी रह जाएगी।

साइबेरिया में या ठंडे स्थानों में नदियां जम जाती हैं। जम जाए गंगा तो ठहर सकती है, नहीं तो नहीं ठहर सकती। चित्त की धारा भी जम जाए, बर्फ बन जाए तो ठहर सकती है, नहीं तो नहीं ठहर सकती।

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