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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

खैर, वह खोजता हुआ मरघट पहुँचा और बात सच निकली। वहाँ मरघट पर फकीर का झोपड़ा था। फकीर के पास जाकर वह अंदर गया तो देखा बडी हड्डियां, बड़े सिर, खोपड़ियां, उस झोपड़े में चारों तरफ रखी हुई हैं, ढेर लगा हुआ है, और फकीर बीच में बैठा हुआ है। उसने कहा कि आप तो मुझसे कहे थे कि मैं झूठों की बस्ती में रहता हूँ और आप तो यहा मुर्दों की बस्ती में रहते हैं। तो मुझे बड़ी परेशानी हुई। पूछते-पूछते हैरान हो गया।

उस फकीर ने कहा, दोनों ही बातें सच हैं। इन मुर्दों की खोजबीन करने से मुझे इस बस्ती का नाम झूठों की बस्ती रखना पडा। कैसी खोजबीन तुम देखते हो, ये हड्डियां और खोपड़ियां रखी हैं। मैंने ब्राह्मण की खोपड़ी की बहुत खोजबीन की कि पता चल जाए, शूद्र की खोपडी से भिन्न है। लेकिन कुछ पता नहीं चलता। मैंने साधु की हड्डियां खोजीं और असाधु की, और दोनों में बहुत पता लगाया कि कोई फर्क पता चल जाए। फर्क पता नहीं चलता।

और ये सारे लोग जब तक जिंदा थे, तब तक ये बहुत फर्क मानते थे कि मैं यह हूँ, तुम वह हो। और मरने पर मैं पाता हूँ कि सब मिट्टी साबित हुए। और एक ने भी जिंदगी में यह नहीं कहा कि मैं मिट्टी हूँ। इसलिए मैंने इनकी बस्ती का नाम झूठों की बस्ती रख दिया है।

सब झूठे थे। असलियत मिट्टी थी। लेकिन न मालूम क्या-क्या दावे करते थे कि मैं यह हूँ, मैं वह हूँ। मैं ब्राह्मण हूँ, तू शूद्र है। मैं नेता हूँ, तू अनुयायी है। मैं गुरु हूँ, तू शिष्य है।

फलां है, ढिकां है--न मालूम क्या। असलियत एक थी कि सब मिट्टी थे। मरघट पर आकर मुझे यह पता चला, इसलिए मैंने इसका नाम झूठों की बस्ती रख लिया। और शायद तुम्हें हैरानी होगी कि मरघट को बस्ती कहना उचित है या नहीं। तो मैंने इसलिए इसका नाम बस्ती रखा है कि जिसको तुम बस्ती कहते हो, वहाँ तो रोज कोई न कोई मरता है और उजाड़ हो जाती है। यहाँ जो एक दफे बस जाता है, फिर कभी नहीं उजड़ता। इसका नाम मैंने बस्ती रख छोड़ा है। और ये सब झूठे थे, मरने से यह पता चल गया।

हम सब भी झूठे लोग हैं। और जब तक हम झूठे लोग हैं, तब तक हम अस्वस्थ रहेंगे। हम स्वस्थ नहीं हो सकते। स्वस्थ होने के लिए झूठ से मुक्त होना जरूरी है।

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