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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

किस झूठ से?


वह जो हमने अपने व्यक्तित्व के संबंध में सृजन कर रखी है, निर्माण कर रखी है। इस झूठ से मुक्त होना जरूरी है, जो हमने अपने बाबत आदर्शों का जाल खड़ा करके निर्मित कर ली है। और जो इस झूठ से मुक्त नहीं होता, उसका सत्य से कभी कोई संबंध नहीं हो सकता।

व्यक्तित्व झूठा हो तो सत्य से मिलन कैसे होगा? सत्य से मिलने के लिए कम से कम सच्चा व्यक्तित्व तो होना चाहिए। कम से कम सच्चाई तो साफ होनी चाहिए कि मैं क्या हूँ।

तो आज की सुबह तो इतना ही कहना चाहूँगा कि यह भ्रम-जाल, जो हमने आदर्शों का अपने आसपास खड़ा कर रखा है--उस भ्रम-जाल में हम झूठे आदमी हो गए हैं। और हमारी दुनिया झूठों की बस्ती हो गई है।

कैसे इसको हम देख सकें--उस देखने की प्रक्रिया के लिए कल सुबह मैं आपसे बात करूंगा।

अब हम सुबह के ध्यान के लिए बैठेंगे।

सुबह के ध्यान के संबंध में दो बातें आपसे कह दूं फिर हम बैठें।

रात हमने ध्यान किया। उसमें हम लेट गए थे। सुबह के इस ध्यान में हम बैठे रहेंगे अपनी जगह। और कोई ज्यादा फर्क नहीं है। शरीर को सीधा रखकर, लेकिन सीधा रखने में कोई तनाव न पड़े। बहुत आहिस्ता से, आराम से। सारे शरीर को ढीला भी छोड़ देना है, ताकि शरीर पर कोई किसी तरह का स्ट्रेन न हो। ऐसे बैठ जाना है, जैसे हम विश्राम कर रहे हैं।

फिर बहुत आहिस्ता से आँख बद कर लेनी है। वह भी बहुत आहिस्ता से। आँख पर भी जोर न पड़े कि हमने आँख भींचकर बंद कर ली हो--पलक गिर जाए।

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