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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

जो है, बस वही है।

तीन दिन देखें। एक-एक पल जीकर देखें। आगे-पीछे नहीं--मौजूद में, प्रजेंट में, वर्तमान में। सुबह उठें--तो ऐसे ही बस यही है--दोपहर यही है, सांझ यही है। जो क्षण सामने आए उसको इस तरह लें, जैसे इसके आगे-पीछे और कुछ भी नहीं है। बहुत हैरान हो जाएंगे। इस खयाल से जीने की गति और ही हो जाती है। एक बहुत अदभुत शांति, क्षण में जीने से शुरू होती है।

आदमी कभी शांत नहीं है।

सुनते हैं, एक बार सिर्फ सारी मनुष्य जाति शांत हो गई थी, एक क्षण को। कोई बहुत होशियार आदमी ने तरकीब निकाली थी, तब कहीं यह हो पाया था। लेकिन यह बहुत पुरानी घटना है, आपमें से किसी को भी याद नहीं होगी। किसी किताब में नहीं लिखी गई, क्योंकि किताबें बहुत बाद में लिखी गई। यह उसके पहले की घटना है। और शायद आपने सुनी भी न होगी, क्योंकि बहुत ही मुश्किल से किसी को यह पता है।

एक बार एक समझदार आदमी ने, एक तरकीब निकाली थी कि सारी मनुष्य जाति को शांत रहने का अनुभव करा दे। उसने यह अफवाह उड़ाई, सारी दुनिया में कि चांद पर भी लोग रहते हैं। अगर हम सारे लोग बहुत ताकत से चिल्लाएं तो शायद वे सुन लें। तो सारी पृथ्वी पर एक खास नियत दिन, खास समय पर सारे लोग जोर से ''हो, हो, हो' की आवाज करके चिल्लाएंगे। यह अफवाह उड़ा दी।

सारी दुनिया में बड़ी उत्सुकता से उस दिन की प्रतीक्षा की गई। वह क्षण आ गया, वह घड़ी आ गई, वह पल करीब आने लगा। सारी दुनिया के लोग, बच्चों से बूढ़ों तक तैयार थे, क्योंकि सारे लोग चिल्लाएंगे तो ही शायद चांद तक रहने वाले लोगों तक आवाज पहुंच सके। और उनसे संबंध पैदा करना था।

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